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भूमिका। सिद्धान्त, संहिता और होरा इन तीन स्कन्धोंसे युक्त ज्योतिः शाख वेदका नेत्र कहा जाताहै । संसारका शुभाशुभ विषय आँखोंसे ही देखा जा सकताहै, इसी प्रकार वेदविहित शुभाशुभ कर्मोंका उपादान और त्याग अर्थात् कोन कर्म किस समय करना और कब न करना; किस प्रकार करना इत्यादि नेत्रका कार्यज्योतिष शास्त्रके द्वारा ही होता है । नेत्रवान् मनुष्य जैसे मार्गमें पड़े कण्ट कादिकोंको देख, उनसे रक्षा अपनी करसकताहै इसी प्रकार ज्योतिषका जाननेवाला, सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मोंको जानकर शुभ कर्मोके आचरणसे सुखी रह सकता है। जब मनुष्य इस मर्त्यलोकमें जन्म लेकर श्रेष्ठ कर्म करनेसे देवदुर्लभ कर्मोंका भी सिद्ध करस कताहै तो कौन बुद्धिमान ऐसे उत्तम लोकमें आकर अपनी उन्न- तिका साधन करनेमें चूकेगा ?। यही विचारकर स्वभावसे ही सर्वजीवोपकारी महर्षि नारदजीने मनुष्योंके लाभके लिये स्कन्ध त्रयात्मक ज्योतिश्शास्त्र बनाया उनमेंसे यह तृतीय होरास्कन्ध नारदसंहिता नामसे प्रसिद्ध है। इसमें शास्त्रोपनयन, ग्रहचार, अब्द- रक्षण, संवत्सरफल,तिथि, वार,नक्षत्र, योग, मुहूर्त, उपग्रह,सूर्य सङ्क्रान्ति, ग्रहगोचर, चन्द्रताराबलाध्याय, लग्नविचार,प्रथमरजोद- र्शनविचार गर्भाधानसे लेकर विवाहपर्यन्त १६ संस्कार, प्रतिज्ञा, यात्रा, गृह्प्रवेश, सद्योवृष्टि, कूर्मलक्षण, उत्पात, शान्ति इत्यादि अनेक