पृष्ठम्:नारदसंहिता.pdf/२०७

एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति

A = ( २०० ) नारदसंहिता । आक्रदं विपुलाख्यं च विजयं षोडशं गृहम् ॥ गृहाणि षण्णवत्येव तेषां प्रस्तारभेदतः ॥ ४७ ॥ ध्रुव १ धान्य २ जय ३ नंद ४ खर ५ कांत ६ मनोरम ७

सुमुख ८ दुर्मुख ९ क्रूर १० शत्रप्रद ११ स्वर्णप्रद १२ क्षयप्रद ३३
  1. आक्रंद १४ विपुल १५ विजय १६ ऐसे ये सोलह प्रकारके घर

ॐ होतेहैं इनके प्रस्तारका भेद९६प्रकारके भेद होते हैं।४६॥४७ गुरोरधो लघुः स्थाप्यः पुरस्तादूर्घ्ववन्न्यसेत् ॥

  • गुरुभिः पूजयेत्पश्चात्सर्वलब्धविधिर्विधिः ॥ ४८ ॥
  • गुरुस्थानके नीचे लघु स्थापित करना तिसके आगे ऊपरके
  1. क्रमसे लिखै फिर बडे छोटे स्थानोंका भेद करना ऐसे एक

। घरके छह २ भेदहोनेसे ९६ भेद होवेंगे ॥ ४८ ॥

दिक्षु पूर्वादितः शालाध्रुवा भूर्द्वौ । कृता गजाः॥

शालाध्रुवांकसंयोगः सैको वेश्म ध्रुवादिकम् ॥ १९॥ अव सोलह नामवाले इन घरोंके भेद कहतेहैं। पूर्वद्वारखाले मकानका ध्रुवांक १ है । दक्षिणद्वारवाले मकानका ध्रुवांक २ पश्चिमद्वारवाले मकानका ध्रुवांक८है। उत्तरद्वारवाले मकानका ध्रुवांक ८ है इस ध्रुवांकमें३ मिलाकर जितनी संख्या हो वह ध्रुव धान्यआदि । संज्ञाछा मकान जानना जैसे पूर्वपश्चिम दो द्वारोंवाला मकान हो तो पूर्वका ध्रुवांक १ पश्चिमका ४ जोड ५ हुआ १ मिळा ६ हुआ तो यह कांतंनामक स्थान जानना ॥ ४९ ॥ ०