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(१४ ) नारदसंहिता । पंचदशे षोडशर्क्षे तद्वक्रं रुधिराननम् ॥ सुभिक्षकृद्भयं रोगान्करोति यदि भूमिजः ॥ ९ ॥ पंद्रहवें सोलहवें नक्षत्रपर वक्री होय तो वह रुधिरानन वक्री कहा है तहां सुभिक्ष हो भय और रोग होवे ॥ ४ ॥ अष्टादशे सप्तदशे तदासिमुसलं स्मृतम् ॥ दस्युभिर्धनह्न्यादि तस्मिन्भौमे प्रतीपगे ॥ ५॥ अठारहवां नक्षत्र वा सतरहवां नक्षत्रपर् वक्री हो वह असिमुस ल नामक है तहां चौरादिकोंसे धननाश हो ॥ ५॥ फालुन्योरुदितो भौमो वैश्वदेवे प्रतीपगः ॥ अस्तगश्चतुरास्यर्क्षे लोकत्रयविनाशकृत् ॥ ६ ॥ पूर्वफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रपर मंगलका उदय हो और उत्तषाराढा नक्षत्रपर वक्री हो और रोहिणी नक्षत्रपर अस्त होय तो त्रिलोकीको नष्ट करे ॥ ६ ॥ उदितः श्रवणे पुष्ये वक्रतो नृपहानिदः ॥ यद्दिग्भ्योऽभ्युदितो भौमस्तद्दिग्भूपभयप्रदः ॥ ७॥ श्रवण पुष्य इनपर उदयहोकर वक्री होय तो राजाकी हानि करे जिस दिशामें मंगल उदय हो उस दिशाके राजा भयकारक नना ॥ ७ ॥ मघामध्यगतो भौमस्तत्रैव च प्रतीपगः ॥ अवृष्टिशस्त्रभयदः पांडुदेशाधिपांतकृत् ॥ ८॥ मघा नक्षत्रपर मंगल उदय होवे फिर वक्री होजाय तो वर्षा नहीं हो प्रजामें युद्धभय पांडुदेशके राजाका नाश हो ॥ ८ ॥