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( २०४ ) नारदसंहिता । अश्वोंकी शालामें ध्वज अथवा वृष आय शुझहै और शय्या, आसन, मंत्र इन्होंकी शालाके द्वारमें ध्वज,सिंह,वृष ये आय शुभ कहे हैं६२ इति श्रीनारदीयसं० भाषा० वास्तुविधानाध्याय एकत्रिंशत्तमः ॥ ३१ ॥ वास्तुपूज़ामहं वक्ष्ये नववेश्मप्रवेशने । हस्तमात्रा लिखेद्रेखा दशपूर्वा दशोत्तराः ॥ १ ॥ अब नवीन घरमें प्रवेश होनेके समय वास्तुपूजाको कहतेहैं । एक हस्तप्रमाण वेदीपर दश रेखा पूर्वको ओर दश रेखा उत्तरको खींचें ॥ १ ॥ गृहमध्ये तण्डुलोपर्य्यैकाशीतिपदं भवेत् ॥ पंचोत्तरान्वक्ष्यमाणांश्चत्वारिंशत्सु वा न्यसेत् ॥ २॥ फिर तिन कोष्ठोंमें चावल रखकर ८१ कोष्टक बनावे तहां पांच और चौतालीस अथीव ४९ देवता भीतरके अलग हैं।२॥ द्वात्रिंशद्वाह्यतः पूज्या स्तत्रांतःस्थास्त्रयोदश । तेषां स्थानानि नामानि वक्ष्यामि क्रमशोऽधुना ।। ३ ।। और बत्तीस देवता बाहिर पूजने चाहियें तिनके भीतर की के तेरह देवता अलगहैं अब क्रमसे तिनके नामोंको कहेंगे ।। ३ ।। ईशानकोणतो बाह्या द्वात्रिंशत्रिदशा अमी । कृपीटयोनिः पर्जन्यो जयंतः पाकशासनः ।। ४ ।। ईशानकोणमें ये बत्तीस ३२ बाह्यसंज्ञक देवताहैं कि अग्नि, पर्जन्य, जयंत, पाकशासन ।। ४ ।।