पृष्ठम्:नारदसंहिता.pdf/२१७

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( २१ % } नारदसंहिता । ज्येष्ठा ३, पूर्वाषाढ २, रोहिणी ३, उत्तराफाल्गुनी ४ ये नक्षत्र यथाक्रमसे पूर्व आदि दिशामें शूलरूप हैं और अनुराधा, हस्त, पुष्य, अश्विनी ये नक्षत्र सब दिशाओंमें शुभ हैं ॥ । ६ ॥ क्रमाद्दिग्द्वारभानि स्युः सप्तसप्ताग्निधिष्ण्यतः । वाय्वाग्निदिग्गतं दंडं परिघं तु न लंघयेत् ॥ ७ ॥ और कृत्तिकां आदि सात २ नक्षत्र पूर्वआदि दिशाओंमें यथाक्रमसे दिग्द्वार नक्षत्र कहे हैं। और वायु तथा अग्निकोणमें रेखादंड है। अर्थात् पूर्वंदिग्द्वारि नक्षत्रोंमें उत्तरको गमन करना और दक्षिण पश्चिमकी एकता करनी परंतु इस वायव्य अग्निकोणकी रेखाको उल्लंघन नहीं करना इस परिघमें गमन नहीं करना चाहिये ॥ ७ ॥ आग्नेय्यां पूर्वदिग्धिष्ण्यैर्विदिशश्चैवमेव हि॥ दिग्राशयस्तु क्रमशो मेषाद्याश्च पुनःपुनः॥ ८ ॥ और कोणोंमें गमनकरना हो तो यह व्यवस्था है कि पूर्वदिग्द्वारि नक्षत्रोंमें अग्निकोणमें गमन करना फिर इसी क्रमसे दक्षिणदिशाके नक्षत्रोंमें नैर्ऋतमें गमन करना । वायव्यके नक्षत्रोंमें पश्चिमके नक्षत्रोंमें गमन करना और मेषादिक राशि तीन वार आवृत्ति होकर पूर्वादिदिशाओंमें रहती हैं जैसे १।५।९ पूर्वमें २। ६ १ ० दक्षिण ० ३ । ७ । ११ पश्चि ० ४ ।८ । १२ उनमें यही चंद्रमाका वास है ।। ८ ।। अथ दिकूस्वामिनः लालाटियोगश्च । दिगीशाः सूर्यशुक्रारराह्वार्कीन्दुसूरयः ॥ दिगीश्वरे ललाटस्थे यातुर्न पुनरागमः ॥ ९॥