पृष्ठम्:नारदसंहिता.pdf/२१९

एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति

(२१२) नारदसंहिता । ललाटगं तु संत्यज्य जीवितेच्छुर्व्रजेन्नरः । विलोमगो ग्रहो यस्य यात्रालग्नोपगो यदि ॥ १४ ॥ जीवनेकी इच्छावाला मनुष्य इस ललाटग योगको त्यागकर गमन करै राजाको जो ग्रह जन्मलग्नमें नेष्टहो वह ग्रह यात्रलग्नमें हो तो उस लग्नमें ॥ १४ ॥ तस्य भंगप्रदो राज्ञस्तद्वर्गोपि विलग्नगः । रवींद्वयनयोर्यानमनुकूलं शुभप्रदम् ॥ ३४ ॥ राजा गमन करे त मनोरथ भंग है और उस ग्रहंकी राशि नवांशक भी अशुभ है । और सूर्य चंद्रमाकी अयनके अनुकूल गमन करना शुभ है जैसे सूर्य उत्तरायण हो चंद्रमाभी उत्तरायण हो तब उत्तर पूर्वमें गमन करना और सूर्य चंद्रमा दक्षिणायन होवे तब दक्षिण पश्चिममें गमन करना ॥ १५ ॥ तदभावे दिवा रात्रौ यात्रा यातुर्वधोऽन्यथा॥ मूढे शुक्रे कार्यहानिः प्रतिशुक्रे पराजयः ॥ १६ ॥ और जो सूर्य चंद्रमा भिन्न २ अयनमें होवें तो सूर्यकी अयनों तो दिनमें गमन करना और चंद्रमाके अयनमें रात्रिमें गमन करना। इससे अन्यथा गमन करनेवालेका वध होता है । शुक्रास्तमें गमनकरे तो कार्यकी हानि हो शुक्रकी सन्मुख गमन करे तोत पराजय हार ) होवे ॥ १६ ॥ प्रतिशुक्रकृतं दोषं हंति शुक्रो ग्रहा न हि । वसिष्ठः काश्यपेयोत्रिर्भरद्वाजः सगौतमः।। १७ }}