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भाषाटीकास०-० ३३. (२१३ ) शुक्रके मन्मुख गमनके दोषको शुक्रही दूर करसकता है अन्यग्रह नहीं करसकते । और वसिष्ठ, कश्यप,अत्रि,भरद्वाज गौतम॥ १७॥ । एतेषां पंचगोत्राणां प्रतिशुक्रो न विद्यते । एकग्रामे विवाहे च दुर्भिक्षे राजविप्लवे ॥ १८ ॥ इन पांच गोत्रवालोंको शुक्रके सम्मुख जानेका दोष नहीं है । और एक ग्राम, विवाह,दुर्भिक्ष, राजभंग ॥ १८ ॥ द्विजक्षोभे नृपक्षोभे प्रतिशुक्रो न विद्यते ॥ नीचगोऽरिग्रहस्थो वा वक्रगो वा पराजितः १९ ।। ब्राह्नणशाप, राजाका क्रोध इन कामोंमें शुक्रके सन्मुखजानेका दोष नहीं है। नीचराशिपर स्थित, शत्रुके घरमें स्थित, वक्रीअथवा पापग्रहोंसे आक्रांत । १९ ॥ यातुर्भगप्रदः शुक्रः स्वांशस्थे च जयप्रदः । स्वेष्टलग्नष्टराशौ वा शत्रुभात्षष्ठगोपि वा ॥ २० ॥ ऐसा शुक्र गमनरनेवाले के मनोरथको नष्ट करता है और अपनी राशिके नवांशकमें स्थित होय तो विजय करताहै स्वेष्टल ग्नमें अथवा लग्नसे. आठवीं राशिपर अथवा शत्रुकी राशिसे छठी राशिपर शुक्र हो ॥ २० ॥ तेषामीशस्य राशौ वा यातुर्मृत्युर्न संशयः । जन्मेशाष्टमलग्नेशौ मिथो मित्रव्यस्थितौ ॥ २१ ॥ अथवा शत्रुओंकी राशि लग्नके स्वामीके घरमें हो तब गमन करनेवालेकी मृत्यु होती है और जन्मलग्न तथा जन्मलग्नसे आठवें घरका पति इन दोनोंकी आपसमें मित्रता होवे ।। २१ ॥