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4A ( २३४) नारदसंहिता में जन्मराश्यष्टमर्क्षेषु दोषा नश्यंति भावतः ॥ क्रूरग्रहेक्षितो युक्तो द्विस्वभावोपि भंगदः ॥ २२ ॥ फ़िर वे जन्मलग्नमें तथा आठवें घरमें स्थित होवें तो स्वभावसे ही सब दोष नष्ट होते हैं और क्रूरग्रहसे युक्त तथा इष्ट् पापग्रह कार्यको भंग करताहै । २२ ॥ याने शुभैर्दृष्टश्च शुभयुक्तेक्षितः शुभः । वस्वंत्यार्द्धादिपंचर्क्षे संग्रहे तृणकाष्टयोः ॥ याम्यदिग्गमनं शय्या कुर्यान्नो गृहगोपनम् ॥ २३ ॥ गमनसमय वह पापग्रह शुभग्रहोंसे दृष्ट नहीं है तो अशुभ है औरं शुभग्रहोंसे युक्त तथा दृष्ट हो ते शुभ जानना।और धनिष्ठाका अर्ध उत्तरभाग आदि, रेवतीपर्यंत पांच नक्षत्र पंचक कहलातेहैं। तिनमें तृण काष्ठ आदिका संग्रह नहीं करना और दक्षिण- दिशामें गमन नहीं करना, शश्या नहीं बनानी, घर नहीं छावना ॥ २३ ॥ जन्मोदये लग्नगते दिग्लग्ने लग्नगोपि वा ॥ शुभे चतुर्षु केंद्रेषु यातेशत्रुक्षयो भवेत् ॥ २४ ॥ जन्मलग्न शुभग्रहोंसे युक्तहो तिस लग्नमें अथवा दिग्द्वारि लग्नमें तथा शुभग्रह चारों केंद्रोंमें प्राप्त होनेके समय गमन करे में शत्रु नष्ट होवें ।। २४ ।। शीर्षोदये लग्नगते दिग्लग्ने लग्नतोपि वा । शुभवर्गे वा लग्ने यातुः शत्रुक्षयो भवेत् ॥ २४॥ ९ ५*