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( २३६ } नारदसंहिता । ५५ जलचर राशिके लग्नमें तथा नवांशकमें जलजातिके कार्य करने शुभदायक हैं । अब स्थानसंज्ञा कहतेहैं मूर्ति १, कोश २, धानुष्क ३, वाहन ४, मंत्र ५, शत्रु ६ , मार्ग ७१ आयु ८, भाग्य ९, व्यापार१०, प्राप्ति १३ , व्यय १२ ये प्रथम आदि बारह भावोंके नाम हैं ।। २९ ॥ ३० ॥ हंति पापस्त्वायवर्जं भावात्सूर्यमहीसुतौ । न निहंतोऽगेहं च सौम्याः पुष्यंत्यरिं विना॥ ३३ ॥ पापग्रह ग्यारहवें घरविना अन्य घरको नष्ट करता है और सूर्य मंगल छठे घरमै अशुभ नहीं हैं और शुभ ग्रह छठे घर बिना अन्य घरोंमें शुभदायक हैं । । ३१ ॥ शुक्रोस्तं चापि पुष्टोपि मूर्तिर्मृत्युश्च चंद्रमाः । याम्यदिग्गमनं रिक्ता सर्वकाष्ठासु यायिनाम् ॥ ३२ ॥ शुक्र सातवें अशुभ है और बली भी चंद्रमा लग्नमें तथा आठवें घर अशुभ है विशेषकरके दक्षिण दिशामें अशुभ है और रिक्कातिथि सब दिशामें वर्जित हैं ॥ ३२ ॥ अभिजित्क्षणयोगोयमभीष्टफलसिद्धिदः ॥ पंचांगशुद्धिरहिते दिवसेऽपि फलप्रदः॥ ३३ ॥ ऐसे मुहूर्तमें अभिजित् क्षणयोग होता है तिसमें गमन करनेसे मनोरथ सिद्ध होता है पचांगशुद्धि रहित दिनमें भी यह योग संपूर्ण शुभदायक है ।। ३३ ।। यात्रा योगे विचित्रास्तान्येन वक्ष्ये इतस्ततः॥ फलसिद्धिर्योगलग्नाद्राज्ञो विप्रस्य धिष्ण्यतः ॥ ३४ ॥