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( २२२ ) नारदसंहिता । शुभ्रग्रह केंद्रमें अथवा त्रिकोणमें हो अथवा उच्चराशिपर हो तब गमन करनेवाला राजा शत्रुओंको ऐसे नष्ट करदेवे कि जैसे गंगाजी पापोंको नष्ट करती है ॥ ५५ ॥ ये नृपा यान्त्यरीञ्जेतुं तत्र योगौ नृपाह्ययौ ॥ उपैति शांतिं कोपाग्निः शत्रुयोषाश्रुबिंदुभिः ॥ ६६ ॥ ऐसे ये दो पेग नृपनामक हैं इनमें गमन करनेवाले राजाकी क्रोधाग्नि, शत्रुओंके स्त्रियोंकी आंसुवोंके पड़नेसे शांत होती है ॥ ५६ ॥ बलक्षयप्रदर्श्चंद्रः पूर्णः क्षीणप्रभावतः । विजयस्तत्र यातृणां संधिः सर्वान् पराक्रमः ॥ ४७ ॥ पूर्ण चंद्रमा बलदायीहै और क्षीणचंद्रमा क्षयकारक है तहां बली चंद्रमाहो तिन तिथियोंमें गमन करनेवाले राजाकी विजय, मिलाप और सर्वप्रकार पराक्रमसे वृद्धि होती है । ५७ ।। निमित्तशकुनादिभ्यः प्रधानेनोदयः स्मृतः ॥ तस्मात्प्रसवनायुः स्यात्फलहेतुर्मनोदयः ॥ ९८ ॥ निमित ( मुहूर्त्त ) और शकुनआदिकोंसे भाग्योदय होना यह मुख्य बात नहीं है किंतु यात्राआदि संपूर्ण मंगलोंमें मनकी प्रसन्नता रहनी यह फलका हेतु है ।। ५८ ।। उत्सवोपनयोद्वाहशवस्य मृतकेषु च ॥ ग्रहणे च न कुर्वीत यात्रां मर्त्यः सदा बुधः ॥ ४९ ॥ उत्सव, उपनयन, विवाह, मुरदाका सूतक, ग्रहण इनविषे बुद्धिमान जन यात्रा नहीं करे ।। ५९ ।।