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भाषाटीकास ०-अ. ३३. ( २२७) कोणके स्वामीका पूजन है । गमनसमयमें तो पूजन करना योग्य ही है और कहीं गमन नहीं करना हो तो भी कार्यकी अपेक्षासे इन दिक्पालोंका इसी प्रकार पूजा करना ॥ ७६ ॥ कार्यं निर्गमनं छत्रध्वजाश्वाक्षतवाहनैः ॥ स्वस्थानान्निर्गमस्थानं धनुषां च शतद्वयम् ॥ ७७ ॥ ध्वजा, छत्र, अश्व, निर्विकार वाहन, इन्होंसे युक्त होकर गमन करना चाहिये और अपने घर दोसौ २०० धनुष प्रमाण अर्थात् ८०0 हाथ प्रमाणके अंतरमें प्रस्थान करना योग्य है ७७॥ चत्वारिंशद्वादशैव प्रस्थितो हि स्वगेहतः । दिनान्येकत्र न वसेत्सप्त भूपः परो जनः ॥ ७८ ॥ अथवा चालीस धनुष प्रमाण वा बारहधनुष प्रमाण अंतर प्रमाणमें प्रस्थान करना अथवा अपने घरसे दूसरे घरमें प्रस्थान करना यही गमनहै गमन करके दूसरे घरमें राजाने एकजगह सातदिनसे अधिक नहीं ठहरना और अन्य जन ॥ ७८ ॥ पंचरात्रं च परतः पुनर्लग्नांतरं व्रजेत् ॥ अकालजेषु नृपतिर्विद्युद्गर्जितवृष्टिषु ॥ ७९ ॥ प्रस्थानकी जगह पाँचदिनसे अधिक नहीं ठहरे जो अधिक स्थिति होजाय तो दूसरे लग्नमें गमन करना और बिना कालमें बिजली कड़कना, तथा वर्षा होना ॥ ७९ ॥ उत्पातेषु त्रिविधेषु सप्तरात्रं तु न व्रजेत् । गमने तु शिवकाककपोतानां गिरः शुभाः ॥ ८९ ॥