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भाषाटीकास०-अ० ३७. ( २३९ ) अथ उत्पाताध्यायः । देवता यत्र नृत्यंति पतंति प्रज्वलति च । मुहू रुदंति गायंति प्रस्विद्यंति हसंति च ॥ १ ॥ जहां देवता नृत्य करतेहैं, पड़ते हैं अथवा देवताओंकी मूर्ति जल उठती हैं, रोती हैं, कभी गाती हैं, मूर्त्तियोंके पसीना I आताहै । कभी हसती हैं ।। १ ॥ वमंत्यग्निं तथा धूमं स्नेहं रक्तं पयो जलम् ॥ अधोमुखाश्च तिष्ठंति स्थानात्स्थानं व्रजंति च ॥ । २ ॥ । मूर्तियोंके मुख से अग्नि, धूप, स्नेह ( तैलादिक ) रक्त, दूध जल ये निकलते हैं अथवा मुख नीचेको जाताहै, एक जगहसे दूसरी जगहसे मूर्त्ति प्राप्त होती है । २ ।। एवमाद्या हि दृश्यंते विकाराः प्रतिमासु च । गंधर्वनगरं चैव दिवा नक्षत्रदर्शनम् ॥ ३ ॥ इत्यादिक विकार देवताओंकी मूर्त्तियोंमें दीखताहैं और आकाशमें गंधर्वनगर ( मकानात ) दीखना, दिनमें तारे दीखने ॥ ३ ॥ महोल्कापतनं काष्ठतृणरक्तप्रवर्षणम् । गंधर्वगेहे दिग्धूमं भूमिकंपं दिव निशि ॥ ९ ॥ तारे टूटने, काष्ठ तृण रक्त इन्होंकी वर्षा ,होनी, अकाशमें व दिशा ओमें धूमां दीखना इत्यादि उत्पात दिनों तथा रात्रिमें भूकंप ( भौंचाल ) होना ४ ॥