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(२४०) नारदसंहिता । अनग्नौ च स्फुलिंगाश्च ज्वलनं च विनेंधनम् ॥ निशीन्द्रचापमंडूकशिखरं श्वेतवायसः ॥ ४ ॥ ईंधन विना अग्नि जल उठे, अग्निमेंसे किणके उडने लगे, रात्रिमें इंद्रधनुष दीखे, मीडक दीखें शिखर दीखे सफेद काग दीखे ॥५॥ दृश्यंते विस्फुलिंगाश्च गोगजाश्वोष्ट्रगात्रतः । जंतवो द्वित्रिशिरसो जायंते वा वियोनिषु ॥ ६ ॥ गौ, हस्ती, अश्व, ऊँट इन्होंके शरीरसे अग्निके किनके निकलते दीखें अथवा दो तीन शिरवाले बालकका जन्म होना, दूसरी योनिमें दूसरा बालक जन्मना ॥ ६ ॥ प्रतिसूर्याश्वतसृषुस्युर्दिक्षु युगपद्रवैः ॥ जंबुकग्रामसंवासः केतूनां च प्रदर्शनम् ॥ ७॥ सूर्यके सम्मुख दूसरा सूर्य दखिना एक ही बार चारों दिशा- ओंमें इंद्रधनुष दीखने, ग्रामके समीप बहुतसे गीदड़ इकठ्ठे होना, पूंछवाले तारे दीखें ऐसे उत्पात दीखें ।। ७ ।। काकानामाकुलं रात्रौ कपोतानां दिवा यदि । अकाले पुष्पिता वृक्षा दृश्यंते फलिता यदि ॥ ८ ॥ कार्यं तच्छेदनं तत्र ततः शांतिर्मनीषिभिः । एवमाद्या महोत्पाता बहवःस्थाननाशदाः ॥ ९ ॥ और रात्रिमें कौओंका शब्द सुनें, दिनमें कपोतोंका शब्द सुनें, अकालमें वृक्षोंके फूल तथा फल दीखें तब ऐसे वृक्षोंका छेद न करना और पंडित जनोंने इन उत्पातोंको दूरकरनेके वास्ते इन्होंकी शांति