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भाषाटीकास ०-अ० ३९. (२४७ ) होता है अर्थात् पुरुषके जिस अंगपर शुभफल कहाहै वहां अशुभ फल होता है ॥ ७ ॥ फलं प्ररोहणे चैव सरटस्य प्रचारतः ॥ सर्वांगेषु शुभं विद्यच्छांतिं कुर्यात्स्वशक्तितः ॥८॥ किरडकाँट सब अंगोंमें जहां चढजाय उसी जगहके शुभफलके विचारे जो अशुभफल होय तो शक्तिके अनुसार शांति करवानी चाहिये ॥ ८ ॥ शुभस्थाने शुभावाप्तिरशुभे दोषशांतये ॥ तत्स्वरूपं सुवर्णेन रुद्ररूपं तथैव च ॥ ९ ॥ शुभ स्थानमें चढे तो शुभफलकी प्राप्ति हो और अशुभस्थान पर चढे तो शांति करनी चाहिये तिस्र किरलकाँटको सुवर्णक बनवाके रुद्ररूप जानकर पूजनकरे ।। ९ ॥ मृर्त्युंजयेन मंत्रेण वस्त्रादिभिरथार्चयेत् ॥ अग्निं तत्र प्रतिष्ठाप्य जुहुयात्तिलपायसैः ॥ १० ॥ मृत्युंजयमंत्र वस्त्रआदि समर्पणकरके पूजन करै अग्निस्थापन करके तिल और खीरसे होम करै ॥ १० ॥ आचार्यो वरुणैः सूक्तैः कुर्यात्तत्राभिषेचनम् ॥ आज्यावलोकनं कृत्वा शक्त्या ब्राह्मणभोजनम् ॥११॥ वरुणदेवताके मंत्रोंसे आचार्य तहां अभिषेक, करै यजमान घृतमें मुख देखके (छायादान कर ) शक्तिके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन करवावे ॥ ११ ॥