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भाषाटीकाप्त०--अ० ४२. ( २५३ } वरुण मंत्र उच्चारणकर तिसउत्पातवाले स्थानको गंगा आदि तीर्थके जलसे छिडकदेवे इस प्रकार जो पुरुष करता है वह उत्पादि दोषसे छूट जाताहे । । ९ ॥ इति श्रीनारदीयसंहितामाषाटीकायां शिथिलीजननशांति रध्याय एकचत्वारिंशत्तमः ॥ ४१ ॥ श्रीरग्निर्बधुनाशश्च वित्तहानिर्महद्यशः। बंधुलाभः पुत्रहानिः स्त्रीचिंता महतो गदः ॥ १ ॥ पूर्वादीनि फलान्येषामिंद्रलुप्तं च मस्तके । पंचवक्पल्लवैश्चैव पंचामृतफलोदकैः ॥ २॥ अभ्यंगमंत्रितैर्मंत्रैः स्नानदोषं विमुंचति ॥ एवमेवाग्निदाहेपि मस्तके मध्यदूषिते ॥ ३ ॥ दंतच्छेदे काकहते सरटापत्तनेपि च ॥ आशिषो वाचनं कृत्वा ब्राह्मणान्भोजयेच्छुचिः ॥ ४ ॥ किसीके शिरपर इंद्रलुप्त होजाय अर्थात् शिरपरसे किसी जग हके बाल उडजावें तो मस्तकमें पूर्वआदि दिशा कल्पित करके लक्ष्मीप्राप्ति १, अग्निक्षय २, बंधुनाश ३, द्रव्यकी हानि ४, महान यश ५, बंधुलाभ ६, पुत्रहानि७, स्त्रिचिंता८,महान रोग९ यह फल पूर्वआदिदिशाओंका जानना और नवमां फल मस्तकमें मध्यभागका जानना।तहां इसकी शांतिके वास्ते पंचवल्कल, पंचपल्लव, पंचामृत, फलोदक इन्होंकरके स्नान करावे और अभिषेकके मंत्रोंका उच्चारण करे तब शुद्धि होती है । इसी प्रकार अग्निदाहादिसे मस्तकमध्यसे