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( २५६ ) नारदसांहिता ! ऊर्धे्वे वाप्यथवा तिर्यगधो वा गगनांतरे ॥ उल्काशिरो विशाला तु पतंती वर्द्धते तनुम् ॥ ८ ॥ आकाशमें ऊपरको अथवा नीचेको तिरछी होती है पडती हुईका विस्तार होता है जिसका मस्तक चौडा होता है ऐसी उल्का जाननी चाहिये ।। ८ ।। दीर्घपुच्छ| भवेत्तस्या भेदाः स्युर्बहवस्तथा ॥ पीडाश्चोष्ट्राहिगोमायुखरोगजदंष्ट्रिकाः ॥ ९॥ वह उल्का लंबी पूंछवाली होती है तिसके बहुतसे लक्षण हैं। वह ऊँट, सर्प, गीदड़, गधा, गौ, हाथी, कीजाड इन्होंके समान आकारखाली उनका इन सबोंको पीडा करती है ॥ ९ ॥ | कपिगोधाधूमनिभा विविधा पापदा नृणाम् ॥ अश्वेभचंद्ररजतवृषहंसध्वजोपमाः ॥ १० ॥ बंदर, गोह, धूमा इन्होंके समान अनेक आकावाली होय तो मनुष्योंको पाप (अशुभ ) फल करती है और, घोडा, हाथी चंद्रमा, चांदी, बैल, हंस, ध्वजा इन्होंके समान ।। १० ।। वज्रशंखशुक्तिकाब्जरूपाः शिवमुखप्रदाः॥ पतंतीह स्वरा वह्नौ राजराष्ट्रक्षयाय च ॥ ११॥ अथवा हीरा, शंख, सीपी, कमल इन्होंके सदृश उल्का पडे त मंगल सुख दायक जननी । अग्निमें उल्कापात होजाय तो राजाका ओर देशका नाश हो ।। ११ ॥ यद्यंबरे निपतति लोकस्याप्यतिविभ्रमः । यद्यर्केंदू संस्पृशति तत्र भूपप्रकंपनम् ॥ १२ ॥ A = A