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( २२ ) नारदसंहिता। श्रावणनामक वर्षमें अनेक प्रकारकी खेतियोंसे शोभित तथा देवताओंके पूजनसे समाकुल पाप पाखंठंडरहित पृथ्वी होवे ।। ११ ।। पूर्वं तु सस्यसंपूर्तिर्नाशं यास्यपरं तु यत् । मध्यवृष्टिर्महत्सस्यं नृपाणां समरं महत् ॥ १२॥ अब्दे भाद्रपदे लोके क्षेमाक्षमं क्वचित्क्वचित् ॥ धनधान्यसमृद्धिश्च सुभिक्षमतिवृष्टयः ॥ १३ ॥ भाद्रपद वर्षमें पहिली खेती (सामणू) अच्छी हो और पिछली खेती ( साढू ) नष्ट हो मध्यम वर्षा खेती अच्छी राजाओंका महान युद्ध हो और कहीं कुशल कहीं दुःख धन धान्यकी वृद्धि अत्यंत वर्षा यह फल होता है ।। १२ ।। १३ ।। सुवृष्टिः सर्वसस्यानिफलितानि भवंति च॥ भवंत्याश्वयुजे वर्षे संतुष्टाः सर्वजंतवः ॥ १४ ॥ आश्विननामक वर्षमें सुन्दर वर्षा संपूर्ण खेतियोंकी उत्पत्ति फल अच्छा सब प्राणी सुखी यह फल होता है ।। १४ ।। सौम्यभागे चरन् भानां क्षेमारोग्यसुभिक्षकृत् ॥ विपरीतं गुरोर्याम्ये मध्ये च प्रतिमध्यमम् ॥ १९ ॥ बृहस्पति अपने योगताराके उत्तरकी तरफ होकर जाय तो प्रजामें क्षेम आरोग्य सुभिक्ष हो दक्षिणकी तरफ गमन करे तो इससे विपरीत फल हो मध्यमें रहे तो मध्यम फल हो ।। १५ ।। पीताग्निश्यामहरितरक्तवर्णोगिराः क्रमात् । व्याध्यग्निरणचौरास्त्रभयकृत्प्राणिनां तदा ॥ १६