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( २९२) नारदसंहिता। ईशान्या त्वष्टभिर्हस्तैश्चतुर्भिर्वाथ मंडपम् ॥ चतुर्द्वारवितानस्रक्तोरणाद्यैरलंकृतम् ॥ ३ ॥ ईशान कोणमें आठ हाथ प्रमाणका अथवा चारहाथ प्रमांणका मंडप बनावे तिसको चारद्वार बंदनवाल,माला, तोरण इत्यादिकोंसे शोभित करे ॥ ३ ॥ तन्मध्ये वेदिका तस्य पंचविंशशमानतः ॥ मंडपस्य बहिः कुंडं प्राच्यां हस्तप्रमाणतः॥ ४ ॥ तिसमंडपके पच्चीसवें अंश ( भाग ) प्रमाण तिसके मध्यमें बेदी बनावे और मंडपसे बाहिर पूर्वदिशामें एकहाथ प्रमाण अग्निकुंड बनावे ॥ ४ ॥ वरयेच्छ्रोत्रियान् विप्रान् स्वस्तिवाचनपूर्वकम् । सूर्यपुत्रं हयारूढं पंचवक्रं त्रियंबकम् ॥ ५ ॥ फिर स्वस्तिवाचन पूर्वक वेदपाठी ब्राह्मणोंका वरणकरे और सूर्यके पुत्र, अश्वपर चढे हुए, पांचमुख और तीननेत्रोंवाले ।। ५॥ शुक्लवर्णवसाखङ्गं रैवंतं द्विभुजं स्मरेत् ॥ सूर्यपुत्र नमस्तेस्तु नमस्ते पंचवक्त्रक ॥६ ॥ शुक्लवर्ण ढाल तलवार धारणकिये हुए दो भुजाओंवाले ऐसे रैवंत देवका स्मरणकरे हे सूर्यपुत्र ! हे पंचमुखवाले देव तुमको नमस्कार है ।। ६ ।।