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भाषाटीकास ०-अ० ५४. (२९५ ) जपादिपूर्वकं सम्यक्कर्ता पूर्णाहुतिं हुनेत् ।। ततो मंगलघोषैश्च नैवेधं च समर्पयेत् ॥ १६ ॥ यजमान जपादि पूर्वक अर्थात् सब जपोंकी दशांश आहुति कराके फिर पूर्णहूति करे फिर मंगल शब्दोंकरके नैवेद्य समर्पणकरे ॥ १६ ।। ततस्ते हुतशेषेण सम्यकुंभोदकैर्द्विजाः ॥ प्रादक्षिण्यव्रजंतोऽश्वाञ्जयंतबलिमुत्तमम् ॥ १७॥ फिर वे चार ब्राह्मण तिन चार कलशोंकी धारा अश्वोंके दहिनी तर्फ " गमन करते हुए छोडकर हुतशेष पदार्थसे उत्तम जयंत बलिदेवे ॥ १७ ॥ जीमूतस्येत्यनूवाकाञ्चतुर्दिक्षु विनिःक्षिपेत् ॥ आचार्याय ततो दद्याद्दक्षिणां निष्कपंचकम् ॥ १८ ॥ और ‘जीमूतस्य ' ऐसे अनुवाक मंत्रपदकर चारों दिशाओंमें बलि छोडना फिर पांच पल (२०)सुवर्ण आचार्यको देवे१८ तदर्द्धं वा तदर्द्धं वा यथाशक्त्यनुसारतः ॥ ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्याद्धेनुं वस्त्रं धनादिकम् ॥ १९ ॥ तिससे आधी अथवा तिससे भी आधी दक्षिणा अपनी शक्तिके अनुसार देनी चाहिये और गौ, वस्त्र धन इन्होंकी दक्षिणा ऋत्विजों के अर्थ देनी चाहिये ॥ १९ ॥