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भाषाटीकास ०-अ० ५५. (२९७ ) अथ श्राद्धलक्षणाध्यायः । चतुर्दशी तिथिर्नंदा भद्रा शुक्रवासरौ ॥ सितेज्ययोरस्तमयं व्द्यंघ्रिभं विषमांघ्रिभम् ॥ १ ॥ चतुर्दशी और नंदातिथि व भद्रातिथिविषे शुक्र और मंगळ, गुरु, शुक्रका अस्त दोचरणोंका नक्षत्र और विषमांघ्रि चरणवाला नक्षत्र जैसे कृत्तिकाका १ पाद मेषमें है यह विषमांघ्रि है और मृगशिर आधा वृषमें है यह दोचरणवाला है ऐसे सब जगह जानों ॥ १ ॥ शुक्लपक्षं च संत्यज्य पुनर्दहनमुत्तमम् ॥ वसूत्तरार्द्धतः पंच नक्षत्रेषु त्रिजन्मसु ॥ २॥ पौष्णब्रह्मर्क्षयोः पौनर्दहनं कुलनाशनम् ॥ दिनोत्तरार्द्धे तत्कर्तुश्चंद्रताराबलान्विते ॥ ३॥ और शुक्लपक्षको त्यागकर पुत्तलविधान आदिसे प्रेत दाहकरना श्रेष्ठ है और धनिष्ठाका उत्तरार्द्ध आदि पांच पंचकोंमें तथा त्रिपुष्करयोगमें और रेवती तथा रोहिणीमें पुत्तलविधान आदि दाहकर्म कियाजाय तो कुलका नाश हो किन्तु मध्याह्न पीछे और क्रिया करनेवालेको चंद्र ताराका बछ होनेके दिन ।। २॥३॥ पापग्रहे बलयुते शुक्रलग्नांशवर्जिते । तत्पुनर्दहनं चोक्तं श्राद्धकालमथोच्यते ॥ ४॥ तथा पापग्रह बलवंतहो शुक्र लग्नमें नहीं हो ऐसे मुहूत्तमें दाह कर्म करना शुभ है । अब श्राद्धकालको कहते हैं । ४ ।।