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( ३० ० ) नारदसंहिता । भोजयेद्यः पितृंस्तत्र पुत्रपौत्रधनं लभेत् ॥ यशस्करी सप्तमी स्यादष्टमी भोगदायिनी ॥ १४ ॥ तहाँ जो पुरुष पितरोंको भोजन कराता है वह पुत्र पौत्र व धन- को प्राप्त होता है सप्तमी तिथि श्राद्धकर्ममें यशकरनेवाली है और अष्टमी भोगदेनेवाली है ।। १४ ॥ श्राद्धकर्तुश्च नवमी सर्वकामफलप्रदा । सूर्ये कन्यागते चंद्रे रौद्रनक्षत्रगे यदा ॥ १५॥ और नवमी तिथि श्राद्धकरनेवालेके संपूर्ण मनोरथोंको सिद्धकर तीहे कन्याराशिपर सूर्य हो तब चंद्रमा आर्द्रानक्षत्रपर आवे उसदिन ॥ । १५ ॥ । सप्तम्यां च तथाष्टम्यां नवम्यां च तिथौ तथा । योगोऽयं पितृकल्याणः पितृन्यस्मिन्प्रपूजयेत् ॥ । १६॥ सप्तमी, अष्टमी, नवमी तिथि होय तो यह पितृकल्याणनामक योग कहा है इस योगविषे पितरोंका पूजन करना चाहिये ।। १६॥ इह संपदमाप्नोति पश्चात्स्वर्गे ह्यवाप्यते ॥ दशम्यां पुष्यनक्षत्रे सुयोगोऽमृतसंज्ञकः ॥ १७ ॥ इसपूर्वोक्त योगमें पितरोंका पूजन करनेवाला मनुष्य इस लोकमें संपत्तेि ( लक्ष्मी ) को प्राप्त होता है और परलोकमें स्वर्गको प्राप्त होताहै । दशमी तिथिको पुष्यनक्षत्र आजाय तो सुंदर अमृतसंज्ञक योग होताहै ॥ १७ ॥