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( ४६ ) नारदसंहिता । नश्यते वारिधाराभिः पूर्वकृष्यखिलं फलम् । राजभिश्चापरं सर्वं विजयाब्दे जयेप्सुभिः ॥ ४३ ॥ विजय नामक वर्षमें बहुत वर्षा होनेसे पहिली खेती ( सामणू ) का नाशहो और पिछली खेतीके समय राजाओंके युद्धदिकका उपद्रव होवे ।। ४३ ।। शैलोद्यानवनारामफलैरतुलिता महीं ॥ जेगीयते वेणुनादैर्जयाब्दे च महाजलम् ॥ ३४ ॥ जय नामक वर्षमें पर्वत फुलवाड़ी वन बगीचा इन्होंमें सर्वत्र बहुत फलवाली पृथ्वी होवे और बहुत वर्षा होनेकी अत्यंत प्रशंसा होये ।। ४४ ।। मन्मथाब्देखिल लोकास्तत्केलिपरलोलुपाः ॥ शालीक्षुयवगोधूमैर्नयनाभिनवा धरा ॥ १५॥ ममथ नामक वर्षमें सब लोग काम क्रीडा करनेमें तत्पर रहैं चावला आदि धान्य, ईख,जव, गेंहूँ इन्हों करके पृथ्वी बहुत मनो हर शोभित हो ॥ ४५ ॥ दुर्मुखाब्देग्निरोगाः स्युः प्रचुरान्नं तथा पयः ॥ राजानः सप्रजास्तुष्टा निःस्वाश्च द्विजसत्तमः॥ ४६ ॥ दुर्मुख नामक वर्षमें अग्निभय तथा रोग हो अन्न बहुत हो दूधकी वृद्धि हो राजा प्रजामें आनंद रहे ब्राह्मण लोग दरिद्री होर्ये ।। ४६ ।। हेमलंबे नृपाः सर्वे परस्परविरोधिनः । प्रजापीडात्वनर्घत्वं तथापि सुखिनो जनाः ॥ ४७ ॥