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भाषाटीकास ०-अ० ३ (४९) प्रचुराः पित्तरोगाः स्युर्मध्या वृष्टिरहेर्भयम् । कीलकाब्दे त्वीतिभयंप्रजाक्षोभः परस्परम्॥ ९८॥ कीलक वर्षमें पित्तके रोग बहुत होवें मध्यम वर्षा हो सर्पोका भयहो टीडी आदिकों का भय हो प्रजामें आपसमें वैर हो ।। ५८ ।। प्रचुराः शैत्यरोगाः स्युर्मध्या वृष्टिरहेर्भयम् । सौम्याब्दे चैव सततं शांतवैराःक्षितीश्वराः ॥ ६९ ॥ सौम्य वर्षमें राजालोग आपसमें निरंतर प्रसन्न रहैं शरदीके रोग बहुत होवें वर्षा मध्यम हो सर्पोका भयहो ।। ५९ ॥ साधारणेब्दे राजानः सुखिनो गतमत्सराः । प्रजाश्च पशवः सर्वे वृष्टिः कर्षकसंमता ।। ६० ॥ साधारण नामक वषेमें राजा सुखी रहें आपसमें वैरत्ताव नहीं करें प्रजामें आनंद पशुवृद्धि और किसान लोगोंके मनके माफिक वर्षा हो ॥ ६० ॥ विरोधकृद्वत्सरे तु परस्परविरोधिनः । राजानो मध्यमा वृष्टिः प्रजा स्वस्था निरंतरम् ॥ ६१ ॥ विरोधकृत नामक वर्षमें राजालोग आपसमें वैरभाव करें वर्षा मध्यम हो प्रजामें निरंतर आनंद रहे ॥ ६१ ॥ अनध्यामयरोगेभ्यो भीतिरीतिहर्निरंतरम् ।। परिधावीवत्सरे तु नृणां वृष्टिस्तु मध्यमा ॥ ६२ ॥ परिधावी नामक वर्षमें अन्नादिकका भाव महँगा रोग टीडी आदि उपद्रवका निरंतर भय हो मध्यम वर्षा हो । ६२ ॥ ,