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( ५० ) नारदसंहिता ।। नृपसंक्षोभमत्युग्रं प्रजापीडा त्वनर्घता । तथापि दुःखमाप्नोति प्रमादीवत्सरे जनः ॥ ६३ ॥ प्रमादी वर्षेमें राजाओका अत्यंत वैरभाव प्रजामें पीडा भाव महँगा हो सब जन दुःखको प्राप्त होवें ।। ६३ ।। आनंदवत्सरे सर्वेजंतवः पशवः सदा ॥ आनंदयंति चान्योन्यमन्यथातु क्वचित् क्वचित् ॥६४॥ आनंद नामक वर्षमें संपूर्ण जीव पशु आपसमें आनंद करें कहीं दुःख भी रहै । ६४ ।। प्रजायां मध्यमसुखं तदधीशाहवोऽवहम् ॥ निष्क्रिया राक्षसाब्दे तु राक्षसा इव जंतवः ॥ ६६ ॥ राक्षस नामक वर्षमें प्रजामें मध्यम सुख रहे राजाआका हमेशा युद्ध होवे सब जन राक्षसोंकी तरह क्रिया रहित होवें ।। ६५ ॥ अनलाब्देऽनलभयं मध्यवृष्टिरनर्धता ॥ नृपाः संक्षोभसंभूता भूरिभीकरभूमिपाः ॥ ६६ ॥ अनल वर्षमें अग्निमय मध्यम वर्षा भाव महँगा राजाओंमें परस्पर बहुत भयंकर वैरभाव उत्पन्न हो ।। ६६ ॥ पिंगलाब्दे तु सततं दिक्पूरितघनस्वनम् । राजानः स्वभुजाक्रांता भुंजते क्ष्मामनुत्तमाम् ॥ ६७ ॥ पिंगल नामक वर्षमें निरंतर दिशाओंमें मेघवर्षनेका शब्द होता है रजालोग अपनी भुजाके बवसे पृथ्वीको भोगें ॥ ६७॥ अतिवृष्टिः कालयुक्ते वत्सरे सुखिनो जनाः॥ सततं सर्वंसस्यानि संपूर्णाश्च तथा द्रुमाः ॥ ६८॥