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(५८) नारदसंहिता। अग्निस्थापन, प्रतिष्ठा, विवाह, यज्ञोपवीतसंपूर्ण मंगलकर्म यात्रा ये त्रयोदशीको करने शुभ हैं ॥ १६ ॥ बंधनाग्निप्रदानोग्रघातत्रणरणक्रिया॥ शस्त्रास्त्रलोहकर्माणि चतुर्दश्यां विधीयते ॥ १७ ॥ बंधन अग्नि लाना उग्रघात रण शस्त्र अस्त्र लोहकर्म ये सब चतुर्दशीको करने शुभ हैं ।। १७ ।। तैलीस्त्रीसंगमं चैव दंतकाष्ठोपनायनम् ॥ सक्षौरं पौर्णमास्यां च विनान्यदखिलं हितम् ॥ १८ ॥ तेछकी मालिश, स्त्री संग, दांतून करना, यज्ञोपवीत क्षौर इनके विना अन्यकर्म पौर्णमासी विषे करने शुभ हैं॥ १८ ॥ पितृकर्मत्वमावास्यामेकं मुक्त्वा कदाचन । न विदध्यात्प्रयत्नेन यत्किचिन्मंगलादिकम् ॥ १९ ॥ अमावास्या तिथिविषे एक पितृ कर्मविना अन्य कुछ मंगलकर्म कभी नहीं करना चहिये ।। १९।। अष्टमी द्वादशी षष्टी चतुर्थी च चतुर्दशी । तिथयः पक्षरंध्राख्या दुष्टास्ता अतिनिंदिताः ॥ २० ॥ अष्टमी द्वादशी षष्टी चतुर्थ चतुर्दशी ये तिथि पक्षरंध्रनामक अर्थात् पक्षमें छिद्ररूप कही हैं ये अशुभ अत्यंत निंदित हैं ।२०। चतुर्थमनुरंध्रांकतत्वूसंज्ञास्तु नाडिकाः॥ त्याज्या दुष्टासु तिथिषु पंचस्वेतासु सर्वदा ॥ २१ ॥ और ४-१४-७-९-५- इतनी प्रमाण घडी यथाक्रमसे इन आदि दुष्ट पांच तिथियोंमें सदा त्याग देनी चाहिये फिर अशुभ नहीं है । २१ ।। -