पृष्ठम्:नारदसंहिता.pdf/७३

एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति

{६६ ) नारदसंहिता। लोके ३ न्दु १६ वसवो ८ नेत्र २ शैला ७ग्नी ३ न्दु १ रसो ६ रसःऽकुलिका यमघंटाख्या अर्धप्रहरसंज्ञकाः॥१॥ बृहस्पतिको ३-१-८- इन प्रहरोंमें शुक्रको २-७-३-इन प्रहरोंमें शनिको १-६-६इन प्रहरोंमें यथाक्रमसे कुलिक, यम घंटक, प्रहरार्द्ध अर्थात् वारवेला ये तीन योग होते हैं ।। १७ ।। । प्रहरार्धप्रमाणास्ते विज्ञेया सूर्यवासरात् ॥ यस्मिन्वारे क्षणो वार इष्टस्तद्वासराधिपः॥ १८॥ आद्यष्षष्ठो द्वितीयोऽस्मात्तस्मात्षष्ठस्तृतीयकः॥ ; षष्ठषष्टश्चैतरेषां कालहोराधिपाः स्मृताः ॥ १९ ॥ जिस वारके जो तीन प्रहर दिखाये हैं उनमें यथाक्रमसे आधे २ प्रहर तक ये योग रहते हैं जैसे रविवारमें ७ प्रहरमें आधे प्रहरतक कुलिकयोग फिर ५ प्रहरमें यमघंटक फिर ४ प्रहरमें ४ घडी अर्ध प्रहर ( वारवेला ) ऐसे सभीमें जानों ये शुभकर्ममें निंदित हैं जिसवारमें : जिस वक्त जिसकी होरा आती है तब वह वार स्वामी होता है पहले तो वर्तमान बार फिर उससे छठा वार फिर तिससेभी छठा वार फिर तिससे छठ ऐसे छठे छठे वारकी काल होरा होती है ॥ १८।। १९ ॥ । सार्धनाडीद्वयेनैवं दिवा रात्रौ यथाक्रमात् । यस्य खेटस्य यत्कर्म वारे प्रोक्तं विधीयते । ग्रहस्य कर्म वारेऽपि तत्क्षणे तस्य सर्वदा ॥ २० ॥ इति श्रीनारदीयसंहितायां वारलक्षणाऽध्यायः पंचमः८॥