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{८४ ) नारदसंहिता । इनके आदिकी तीन २ घडी वर्जितहैं और गंड अतिगंडकी छह २ घड़ी वर्जितहैं व्याघातकी नव शूलकी पांच घडी वर्जित हैं ।३।। ४ ।। अदितीन्दुमघाश्लेषामूलमैत्रेज्यभानि च ॥ ज्ञेयानि सहचित्राणि मूर्ध्निभानि यथाक्रमात् ॥ ३॥ और पुनर्वसु, मृगशिर, मघा, आश्लेषा, मूल, अनुराधा, पुष्य; चित्रा ये नक्षत्र यथाक्रमसे मस्तकफे क्रमविषे कहेहैं ॥ ५॥ लिखेदूर्ध्वगतामेकां तिर्यग्रेखास्त्रयोदश । तत्र खार्जुरिके चक्रे कथितं मूर्धिं भं न्यसेत् ॥ ६ ॥ भान्येकरेखागतयोः सूर्याचंद्रमसोर्मिथः । एकार्गलो दृष्टिपातश्चाभिजिद्वर्जितानि वै ॥ ७ ॥ तहां एक रेखा खडी खींचे और तेरह रेखा तिरछी खींचनी चाहियें ऐसा तहां खर्जीरिक यंत्र अर्थात् खजूरवृक्ष सरीखे आकार वाला चक्र बनालेवे तहां सब नक्षत्र लिखचुके पीछे विचारों को स्वी चंद्रमाके नक्षत्र एक रेखा पर आजावे तो एकार्गल दृष्टिपात योग होताहे यहां अभिजित् नक्षत्रकी गिनती नहीं करनी ॥ ६ ॥ ७ ॥ लांगले कमठे चक्रे फणिचक्रे त्रिनाडिके ॥ अभिजिद्भणना नास्ति चक्रपाते विशेषतः ॥८॥ इति श्रीनारदीयसंहितायां योगाध्यायः सप्तमः ७॥ हलचक्र, कूर्मचक, सर्पकारचक्र, त्रिनाडीचक्र इनमें अभि जित् नक्षत्रकी गिनती नहीं करनी और विशेषकरके चक्रपातमें गिनती नहीं करनी ॥ ८॥ ति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां योगप्रकरणाध्यायः सप्तमः ॥७३ ।।