पृष्ठम्:बृहत्सामुद्रिकाशास्त्र.pdf/१४

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

१४ सामुद्रिकशास्त्रम् । | भाषाटकासाहतम् । निकलकर आयुरेखाके नीचेसे चलकर हाथके वामपार्श्व ( वाई । अर्थ-तथा जिसके हाथकी पांचों अंगुलियोंकी सब रेखायें । ओर ) प्रतीत होती है ॥ ४० ॥ मिलकर यदि पन्द्रह होवें तो वह मनुष्य बडा भारी चोर होवे ऐसा बहुरेखाफल ।। चिह्न जानना। यदि सोलह रेखायें गिननेसे प्रतीत होवें तो यह यूत- बहुरेखा भवेत् केशं स्वल्पनिर्धनहीनता ॥ कर्म करनेवाला अर्थात् जुवारी होवे तथा वंचक ( ठग ) होवे । एवं रेखाय वामनः सौख्यं सामुद्रवचनं यथा ॥४१॥ यदि सत्रह रेखायें हों तो मनुष्य पापकर्ममें रत रहे । यदि अठारह अर्थ-जिसके हाथमें माता पिताकी रेखाके बीचमें बहुतसी छोटी । | रेखायें होवें तो धर्मात्मा होवे ॥ ४४ ॥ छोटी रेखायें प्रतीत हों तो निर्धन होनेका चिह्न जानना तथा केश। । ऊनविंशे भवेन्मान्यो गुणज्ञो लोकपूजितः ॥ होवे ऐसा जानना । तथा जो माता पिताकी रेखाके बीच तपस्वी विंशतो ज्ञेयो महात्मा चैकविंशकै ॥४५॥ थोडी रेखायें हों तो कुछ निर्धन होके कुछ सुखको भोगनेवाला । अर्थ-जिसके दाहिने हाथके पांचों अंगुलियों में उन्नीस रेखायें जानना । यह क्षीरसागरवासी भगवान्ने श्रीब्रह्माजीसे वर्णन । प्रगट दीख पड़े तो वह मनुष्य लोकमान्य ( संसारमें सन्मान पाने- किया है ॥ ४१ ॥ वाला), गुणज्ञ, लोकपूजित होवे और यदि वीस रेखायें प्रत्यक्ष अङ्कलीनां पृथग्रेखा गण्यन्ते त्रितयं पृथक् ॥ दीख पड़े तो तपस्वी तथा यदि इकईस रेखायें प्रगट दीख पडें तो रेखाद्वादशकं सौख्यं धनधान्यप्रदायकम् ॥ ४२ ॥ वह मनुष्य महात्मा होवे ॥ ४५ ॥ अर्थ-जिस मनुष्यके हाथकी पांचों अंगुलियोंके मध्य पृथक् ललाटवर्णन । पृथक् तीन तीन रेखा होनेसे यदि बारह रेखातक प्रत्यक्ष दीख उत्पन्नैर्विपुलैः शंखेललाटो विषमस्तथा ॥ पडे तो वह पुरुष सुखपूर्वक धनधान्य आदिकका भोगनेवाला निर्धनो धनवन्तश्च अद्धेन्दुसदृशैर्नरः ॥ ४६॥ होता है ऐसा जानना ॥ ४२ ॥ " अर्थ-जिसका ललाट ऊंचा हो और ललाटके ऊपर चटके अडुलीनां पृथग्रेखा गणने चेत् त्रयोदशम् ॥ प्रगट शखके आकार चिह्न प्रतीत हो तथा ललाटके ऊपर अर्धच- महादुःखं महाक्लेशं सामुद्रवचनं यथा ॥४३॥ । न्द्रमाके समान रेखा प्रतीत हो तो निर्धन वंशमें उत्पन्न होनेपरभी अर्थ-जिस मनुष्यके हाथमें पांचों अंगुलियोंकी सम्पूर्ण रेखायें मनुष्य वडा धनवान्, सुखी तथा भोगी होवे ॥ ४६॥ । तथा च ।। विपुलमूर्ध्वमधिकमुन्नतमद्धेन्दुसम्मितं राज्यम् ॥ प्रदिशत्याचार्यपदं शक्तिविशालं नृणभालम्॥४७॥ अर्थ-जिसका ललाट चौडा, ऊंचा, वडा, आधे चन्द्रमाके आ- सासुब्वत्रयोदशम गिनन-जिस मनुष्यों गिननेपर तेरह होवें तो वह महादुःखी अनेक प्रकारके क्लेशोंसे युक्त होता है ऐसा समुद्रशायी भगवान्ने कथन किया है ॥ ४३ ॥ रेखापंचदशे चौरः षोडशे यूतवंचकः ।। पापी सप्तदशे ज्ञेयो धर्मात्माष्टादशे भवेत् ॥४४॥