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४४ ४५ सामुद्रिकशास्त्रम् । अर्थ-जिसके शरीरमें सुन्दर चिकने भेरेके समान काले रो होवें और नरम पतले होवें तो वह मनुष्य राजा होता है॥ १५॥ रोमरहितः परिव्राट् स्याद्धमः स्थूलरूक्षखररोमा।। पापः पिंगलरोमा निःस्वःस्फुटिताग्ररोमापि ॥१६॥ अर्थ-जिसके रोम न हों वह संन्यासी होता है और जिसके रोम मोटे, रूखे, खरदुरे हों वह पुरुष अधम होता है, तथा जिसके रोम भूरे हों वह पापी होता है और फटी हुई नोक जिनकी ऐसे रोम जिसके हों वह पुरुप दरिद्री होता है ॥ १५६॥ सुभगो रोमयुतः स्याद्विद्वान्धनरोमसंयुतो मनुजः ॥ । उदृत्तरोमभिः पुनरगश्च बहुभिश्च वित्तसंकलितः १५७। अर्थ-जिसके रोम मिले हुएसे प्रतीत हों वह पुरुष रूपवान् होता है और जिसके रोम घने हों वह पुरुष विद्वान होता है तथा जिसके रोम गुच्छेदार हों वह पुरुष बहुत धनवाला होता है॥१२७॥ रोमेकैकं नृपतेद्वद्रं श्रोत्रियधनाढ्युबुद्धिमताम् ॥ अधिकान्येतानि पुनर्निःस्वानां मूर्धजेष्वेवम्॥१५८॥। अर्थ-जिसके एकही एक रोम हो वह राजा होता है और जिसके शरीरमें दो दो रोम हों वह वेदपाठी, धनवान और बुद्धिमान होता है तथा जिसके रोम अधिक अधिक हों वह निर्धनी होता है एवं मस्तकपरके रोमकोभी जानना अथवा शिरके केशक लक्षण इसी प्रकार जानना ॥ १५८ ॥ | जंघालक्षण । ऊरू यस्य समसे रंभास्तंभभ्रमं वितन्वते ॥ कोमलतनुरोमचिते स जायते भूपतिः प्रायः॥१५९॥ लेतः १५७ जिसके बाद जिसके रोमध एसे प्रतीत हों भाषाटीकासहितम् । अर्थ-जिस पुरुषकी जांचें मांससे भरी, केलाके खंभके समान भासमान होय और कोमल व छोटे रामकरके सहित हों तो ऐसी जंघाओंवाला पुरुष बहुधा पृथ्वीका स्वामी होता है ॥ १५९ ॥ स्निग्धा ऊरू मृदुली क्रमेण पीनौ प्रयच्छतौ लक्ष्मीम् ॥ विकटौ स्त्रीवल्लभतांगुणवतां संहती कृतौ भवतः॥१६०॥ । अर्थ-जिस मनुष्यकी दोनों जायें चिकनी, नरम और क्रमसे मोटी होय तो ऐसी जंघायें लक्ष्मीके देनेवाली जाननी और जिसकी जंघायें विकट (कुडौल ) हों अथवा चाडी हों वह स्त्रीका प्यारा होता है तथा जिसकी जंघायें मिली हुई होंय वह पुरुष गुणवान् होता है ॥ १६० ॥ जानुलक्षण । निम्नः स्त्रीपरवशगः शशिवृत्तैगूढमांसलै राज्यम् ॥ दीचैर्महादरायुः सुभगवं जानुभिः स्वल्पैः ॥ १६१ ॥ | अर्थ-जिसकी जानु नीची वा छोटी होती हैं वह स्त्रीके वशमें होता है और जिसकी जानु चन्द्रमाके समान गोल और मोटी हों वह राज्य करनेवाला होय, तथा जिसकी जानु लम्बी हों वह बडी आ- युवाला होता है, जिसकी जानु पतली वा छोटी हों वह मनुष्य सुन्दर होता है ॥ १६१ ।। दिशति विदेशे मरणं मनुजानी जानु मांसपरिहीनम् ॥ कुम्भनिभं दुर्गत तालुफलाभंतु बहु दुःखम् ॥ १६२॥ अर्थ-जिन मनुष्योंकी जानु मांसरहित ( सुखी) हों वे मनुष्य परदेशमें मरण पाते हैं, जिनकी जानु कुंभ ( घडे) के समान हों वे दरिद्रभावको प्राप्त होते हैं, जिनकी जानु तलफलके समान हों वे बहुत दुःख पाते हैं ॥ १६२॥