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सामुद्रिकशास्त्रम् । वेतसवंशदलप्रतिभासः कर्पूर रूपवदेव भगो वा॥ लम्बगलो विकटो गजलोमा नैव शुभश्चि- पिटोऽपि निरुक्तः ॥ ९१ ॥ | अर्थ-जिस स्त्रीकी योनि वैत और बांसके पत्रके आकार हो अथवा बीचमै गहिरी एक ओर ऊंची तथा कंठके समान एक ओर चौडी, एक ओर लंबी और ऊंची नीची हो और हाथीके सदृश रोम जिसपर हों तथा जिसकी योनि चिपटी हो तो ऐसी योनि शुभ नहीं जानना ॥ ९१ ॥ मृदुतरं मृदुरोमकुलाकुलं यदि तदा जघनं भग- भाजनम् ॥ उत समुन्नतमायतमादरात्पतिक- लाकलितं गदितं बुधैः ॥ ९२ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी योनि बहुत कोमल और कोमल रोमांसे युक्त ऐसी योनि यदि हो तो ऐश्वर्यकी देनेवाली होती है तथा जो ऊंची, बड़ी और चमकदार अथीत् कान्तिवाली हो तो वह आदरपूर्वक पतिकलासे शोभित अर्थात् जिसके देखने छूनेसे चित्तकी उमंग बढे ऐसी योनिभी ऐश्वर्यको बढावनेवाली पंडितोंने कही है ॥९२॥ तदैव दक्षिणावर्ते मांसलं शुभसूचकम् ॥ अतिस्थूलं महादीचे सद्यो दौभाग्यकारकम् ॥ ९३ ॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी योनि दाहिनी ओरको घूमी हुई और मोटी हो तो शुभ होती है और जो वांई ओरको घूमी हुई व किसी स्थानपर खंडितसी हो तो स्त्रियों को ऐसी योनि व्यभिचारिणी करनेवाली होती है ॥ ९३॥ निमोसे कुटिलाकारं रूक्षं वैधव्यसूचकम् ॥ अतिस्थूलं महादीर्घ सद्यो दौर्भाग्यकारकम् ॥९४ ॥ भाषाटीकासहितम् । अर्थ-जिस स्त्रीका भग मांसरहित, कुछ टेढासा, रूखा हो तो वैधव्यसुचक जानना अर्थात् विधवा करता है और जो भग बहुत मोटा हुआ बहुत लंबा हो तो शीघ्र भाग्यहीन करनेवाला होता है ॥ ९४ ॥ मृदुला विपुला बस्तिः शोभना च समुन्नता ॥ अशुभा रेखया क्रान्ता शिराला लोमसंकुला ॥९८॥ अर्थ-जिस स्त्रीकी योनि कोमल, बडी और ऊंची हो तो शुभ जानना, तथा बहुत रेखा व नसोंवाली व रोमवाली हो तो अशुभ फलको देनेवाली जानना ॥ ९५॥ शंखावत भगो यस्याः सा गर्भमिह नेच्छति ॥ वामोन्नतं च कन्यादः पुत्रदो दक्षिणोन्नतः ॥९६॥ । अर्थ-जिस स्त्रीकी योनि शंखावत अर्थात् शंखके समान घूमी हुई एक ओरको मोटी एक ओरको पतली हो तो ऐसी योनि गर्भको धारण नहीं करती है तथा यदि स्वीकी योनि वायं ओरको ऊंची हो तो कन्यायें प्रगट होती है और जो दाहिनी ओरको ऊंची हो तो पुत्र उत्पन्न होते हैं ॥ ९६॥ जंघालण ।। जंघे रम्भोपमेयस्या रोमहीने च वर्तुले ॥ मांसले च समे स्निग्धे राज्ञी सा भवति ध्रुवम् ॥९७॥ | अर्थ-जिस स्त्रीकी जांघ कदली (केला) के खंभसमान रोम- रहित, गोल, सीधी, मोटी, बराबर और चिकनी होवें वह स्त्री निश्चय रानी होती है ॥ ९७ ॥ जानुलक्षण ।। भवति जानुयुगं यदि मांसलं तदतिवृत्तमतीव शुभप्रदम्॥ भुवनभर्तुरतौ विपरीतमादिभिरिदं विपरीतसुदाहृत ९८