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यह सामाद्रिक शास्त्र प्राचीन लिखा हुआ हमको एक पंडितसे प्राप्त हुआ और जैसा कुछ उसमें क्रम था उसी अनुसार हमने लिखकर भाषाका कर दिया है यद्यपि उस हस्तलिखित पुस्तकमे अशुद्धियां बहुत थी तथापि हमने निजमति अनुसार अशुद्धिया को शुद्ध कर दिया है तभी लेवदोष से अथवा मनुष्यधर्मानुसार अशुद्ध रह गई ही उसकी विद्वान् जन क्षमा करेंगे यह हमारी वारंवार प्रार्थना है अथा।' अस्मिनुस्वरयंजनाविन्दुरफमात्राविहीनं लिखितं मया यत । तत्सर्वमायः। परिशोधनीयं प्रायेण मुगान्त हि ये लिखन्ति ।। "रा गन्थके दो खंड ४ १ पूर्वणंड, २ उत्तरखंड तहां पूर्व खंडमें मनुष्योंके अंग प्रत्यंग तथा हस्तरेखा व चिहाके लक्षण मली भांति वर्णन किये हैं। और उत्तरखं- इमं खियाके अंग प्रत्यंग तथा हस्तरेखा व चिह्नांके लक्षण भली भांति लिखे गये हैं। इस पुस्तकका भाषान्तरसहित सर्वाधिकार लक्ष्मीबेंकटेश्वर छापेखानेके अध्य- क्षको सर्वदाके लिये दे दिया है । किमाधिकमित्यलम् ।। च त्रशुक्ल ९ सम्वत १९६३. सत्कृपभाजन- ज्योतिर्वित्पण्डितनारायणप्रसाद मिश्र लखीमपुर खीरी, (अवध.) | भाषाकारकृत प्रार्थना । त्रिषष्टिनन्दचन्द्रेऽब्दे आषाढे च सिते दले। चतुथ्य भौमवारे च भाषा सम्पूर्णतामगात् ॥ १ ॥ भाषेयं रचिता प्रेम्णा श्रीनारायणशर्मणा ॥ । अत्र कुत्राप्यशुद्धं चेत्क्षन्तव्यं विबुधैर्नरैः ॥ २ ॥ अर्थ-श्रीमन्महाराजाविक्रमादित्यजीके सम्वत् १९६३ आषाढ- मास शुक्लपक्ष चतुर्थी भौमवारको यह ( सामुद्रिकशास्त्रकी ) भाषा- टीका समाप्त हुई, यह भाषा प्रेमपूर्वक ज्योतिर्वित्पण्डित नारायण- प्रसादमिश्रने रचना करी यदि यहां कुछ भी कहीं अशुद्धता रह गई। हो तो विद्वान् जनोंको क्षमा करनी चाहिये ॥ १ ॥२॥ समर्पण । अयोध्यामंडले रम्ये नैमिषात्पश्चिमोत्तरे ॥ योजने सप्तप्रमिते तत्र लक्ष्मीपुरे वरे ॥ १ ॥ मिश्रनारायणेनात्र भाषां कृत्वा यथामति ॥ बृहत्सामुद्रिक शास्त्र गंगाविष्णोः समर्पितम् ॥२॥ अर्थ-अयोध्यामंडल जो अत्यन्त रमणीय है जिसको अवधदेश कहते हैं उसमें एक प्रसिद्ध नैमिषक्षेत्र है तहांसे पश्चिमोत्तर (वायव्य कोणमें ) सात योजन (२८ कोश ) पर लखीमपुर नामवाला एक श्रेष्ठ ग्राम है तहां मुझ नारायणप्रसाद मिश्रने अपनी बुद्धिके अनु- सार भाषाटीका करके यह वृहत्सामुद्रिक (वडा सामुद्रिक ) शास्त्र श्रीमान सेठ गंगाविष्ण श्रीकृष्णदासजीके अर्थ भाषान्तरसहित समर्पण किया ॥ १॥ २॥