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सामुद्रिकशास्त्रम् । राजचिह्न । जनने प्रवलो यस्य राजयोगो भवेद्यदि ॥ करे वा चरणोऽवश्यं राजचिह्न प्रजायते ॥४॥ अर्थ-जिसके जन्मसमय प्रवल राजयोग होवे उसके हाथ वा। पांवमें पद्म आदि राजचिह्न अवश्य होता है ॥ ४ ॥ अनामा मूलगा रेखा सैव पुण्याभिधा मता ॥ मध्यमांगुलिमारभ्य मणिबन्धान्तमागता ॥५॥ अर्थ-अनामा (कनिष्ठिका और मध्यमाके बीचकी अंगुली) के मूलमें जो सीधी रेखा होवे तो वह पुण्यकी देनेवाली शुभ होती है और वीच की अंगुलीसे लेके मणिबन्ध अर्थात् हाथकी जडतक जो सीधी और पूर्ण एकही रेखा होवे तोभी शुभ होती है ॥५॥ वैसारणो वातवारणो वा चोद्धारणो दक्षिणपा- णिमध्ये ॥ सरोवरं चकुश एवं यस्य वीणा च राजा भुवि जायते सः ॥६॥ अर्थ-जिसके दाहिने हाथमें मछली, छत्र, हाथी, तालाव और अंकुश वा वीणा इनमें से जो कोईभी चिह्न होवे तो वह मनुष्य पृथ्वीमें राजा होवे ॥ ६॥ मुशलशेलुकृपाणहलाङ्कितं करतले किल यस्य स वित्तपः ॥ कुसुममालिकया फलमीदृशं नृप- तिरेव नृपालुभुवो यदा ॥ ७ ॥ अर्थ-जिसका हाथ मुशल, पर्वत, तलवार, हुल इन चिह्नोंसे युक्त हो वह अवश्य धनवान होवे और जो फूलको मालाका चिह्न होये तभी धनवान हवे तथा राजकुलमें उत्पन्न हो और यह चिह्न हो तो राजा होवे ।। ७॥ भाषाटीकासहितम् ।। ऊर्दुरेखाफल । सोद्ध रेखा विशेषेण राज्यलाभकरी भवेत् ॥ खण्डिता दुष्टफलूदा क्षीणा क्षीणफलप्रदा॥८॥ अर्थ-ऊर्ध्वरेखा वह है जो बीचकी अंगुलीसे हाथकी जडतक अपूर्ण एकही रेखा होती है, सो विशेषकरके राज्यलाभ करानेवाली होती है, जो ऊर्ध्व रेखा खंडित हो तो दुष्ट फल देती है और जो क्षीण हो तो क्षीण फल देती है ॥ ८ ॥ । यवाकारचिह्नफल ।। अंगुष्ठमध्ये पुरुषस्य यस्य विराजते चास्यवो यशस्वी॥ स्ववंशभूषासहितो विभूषा योषाजनै- रर्थगणैश्च मर्त्यः॥९॥ अर्थ-जिस पुरुपके अंगठेके बीच जाके समान सुन्दर आकार होवे तो वह यशवाला होता है और वह मनुष्य अपने वंशमें भूषण तथा आभूषण और स्त्रीजन तथा धनसे युक्त होता है ॥ ९ ॥ । लक्ष्मीप्राप्तिचिह्न ।। करतलेऽपि च पादतले नृणां तुरगपंकजचापर- थाङ्गवत् ॥ ध्वजरथासनदोलिकया समं भवति। लक्ष्म रमा परमाये ॥ १० ॥ अर्थ-जिसके हथेली और चरणतल ( तलवा) में पाडा, कमल, मनुष्य, चक्र, ध्वजा, रथ, सिंहासन और इढी ये चिह्न हों उनके स्थानमें श्रेष्ठ लक्ष्मी सर्वदा निवास करे ॥ १० ॥ । अखण्डलक्ष्मीचिह्न । कुम्भः स्तम्भो वा तुरङ्गी मृदङ्गः पाणावंघौ वा द्रुमो यस्य पुंसः ॥चञ्चद्दण्डोऽखण्डलक्ष्म्या परी- तः किंवा सोऽयं पण्डितः शौण्डिको वा ॥ ११ ॥