पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/१४९

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

१३२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते पातादीनां च परमबीजफलं त्रिशता भक्तं सत्क्रमेण ३, ५, ५, १५, २, १, ५२, २, ४ भवति, तत्रानुगतागतफलमेतद्यदि रविवन्द्रबृहस्पतिचन्द्रोच्चादिषु ऋणं क्रियेत तदा स्फुटक्रियाकरणयोग्यो मध्यमग्रहः स्यादित्यत्रागम एव प्रमाणम्, एव’ शे, मस्मादपि तथैवानुपातो यतो द्वादशसहस्रवर्षान्ताद् विलोमक्रमेणायं कालःतत्र फलं वृद्धयुन्मुख मेव यतो द्वादशसहस्रवर्षान्ते फलस्य परमहसस्तत्कालाद् विलोमक्रमेण फलसत्ताक्रमेणाधिका एवातोऽनुपातेनोभयत्र फलसाम्यमेवातः पवूफ xशेष परमवृफल +शेष फल =a°s»ab– इतोऽग्रे पूर्ववदत्र वर्षशब्देन सर्वत्र सौरवर्षमेव ग्राह्यमिति, भास्कराचार्येण सिद्धान्तशिरोमणौ भानुचन्द्रेज्यशुक्रेन्दुतु इगेष्वनुपातागतफलमृणं तथा भौमसौम्येन्दुपातातिषु धनमभिहितं, परं ब्रह्मगुप्तेन सर्वत्रानुपातागतफलमृणमेव कार्यमिति कथितं कमलाकरेण सिद्धान्ततत्वविवेके बीजकर्मसंस्कारस्य खण्डनमेव कृतं किमत्र युक्तमितिनिर्णायकयुक्त्यभावाकिमपि वक्तु' न शक्नोम्यहमिति ॥ ६०-६१ ॥ अब बीज कर्म कहते हैं हि- भा.-कल्पगत वर्ष में बारह हजार (१२०००) से भाग देने से जो लब्धि होती है वह गत है, उसको हर १२००० में घटाने से जो शेष रहता है वह गम्य है, इन दोनों में जो अल्प हो उसे दो सौ से भाग देने से जो लघ्वफल हो उसे तीन और पाँच से गुणने से जो कलात्मक फल हो उनको क्रम से रवि और चन्द्र में ऋश करना, चन्द्र में जो कलात्मक फल ऋण किया गया है वही बृहस्पति में भी ऋण करना चाहिये। उसी फल को दो से गुणाकर चन्द्रमन्दोच्च में ऋण कर देना चाहिये, उसी फल को पन्द्रह से गुणा कर जो हो उसे शु के शीघ्रोच्च में ऋण करना । उसी फल को बावन ५२ से गुणकर जो हो उसे बुधशी नोच्च में ऋण करना चाहिये । उसी फल को दो, एक और चार से पृथक्-पृथक् गुणा करके जो हो उन्हें क्रम से पात, मङ्गल और शनि में ऋण करना चाहिये ।n६०-६१॥ ‘इष्टग्रहभगणगुणाव' इत्यादि ब्रह्मगुप्तोक्तप्रकार से या ‘चरचक्रहतो दिनसंचयः इत्यादि भास्करोक्तप्रकार से सावित क्रन्तिवृत्तीय मध्यम ग्रह से स्फुट क्रिया करने से वास्तव स्फुट ग्रह नहीं पाते हैं, लेकिन इस मध्यम ग्रह में बीजक्रमे जनित फल को संस्कार करने से जो मध्यम ग्रह होते हैं उससे स्फुट क्रिया करने से वास्तव स्फुटग्रह भाते हैं, यह बात आगमवादी लोग कहते हैं। वस्तुत: इसमें कुछ प्रामाणिकता नहीं है ।