मध्यमाधिकारः १३३ उपपति से मानयन योरय कितने दिनों में उपलब्ध भूत पदायं बीज शब्द से कहा जाता है । उसका कभी बीजकर्म कहलाता है, उन २ पदार्थों की स्ट्यादि से लेकर छ: हजार वर्षे पर्यन्त वृद्धि होती है उससे आगे छः हजार वर्ष पर्यन्त ह्रास होता है इसमें अगम ही प्रमाण है, इसलिये सृष्ट्यादि से छः हजार वर्षान्त में परमवृद्धि होती है, बारह हजार वर्षान्त में परम हप्त होता है यह निर्गलितार्थ हुआ; इस तरह प्रत्येक बारह हजर वर्षे में होता है, इसलिये इष्ट काल में जो गत सौर वर्षे हो उसे बारह हजार से भाग देने से जो शेष रहे उप पर से अनुपात द्वारा फल लेकर मध्यम ग्रह में संस्कार करने से स्फुट क्रिया करण योग्य मध्यम ग्रह होगें, यदि शेष <६००० वर्षे तब फल वृद्धभिमुख होता है, यदि शेष >६००० वर्ष तब फल हासोन्मुख होता है । यदि शेष <६००० वर्षे तब शेष <१२०००–शेष= शेष लेकिन दोनों शेषों के अनुपात से फल एक ही होता है। इसलिये अकूलाधव के लिये यहां ‘शे’ इसी से अनुपात करना ठीक है । यदि यो> ६००० वर्षे तब श> १२००० -शेष== शेष यहां भी दोनों शेषों से फल एककालीन ही होता है, यहाँ अङ्क लाघव के लिये भी इसी से अनुपात करना ठीक है, इसलिये अनुपात करते हैं । परमोपचयफल xशेष परमोरचयफलं xशेष
~-फल यहां रवि आदि ग्रहों के और
६००० @ © पातादियों के परम बीज फलों को तीस से भाग देने से क्रम से ३,५,५,१५,२,१,५२२३,४ होते हैं, यहाँ अनुपातागत फलों को यदि रवि, चन्द्र, बृहस्पति, चन्द्रमन्दोच्चदि में ऋण करते हैं तब स्फुट नियाकरण योग्य मध्यम ग्रह होते हैं, इसमें भागम ही प्रमाण है । इस तरह शे इससे भी उसी तरह अनुपात होता है क्योंकि बारह हजार वषन्ति से विलोम क्रम से यह काल होता है वहाँ फल वृद्धि के तरफ होता है, क्योंकि बारह हजार वर्षान्त में फल का परमहास होता है, उस काल से विलोम क्रम से फल की सत्ता क्रम से अधिक ही होती है, इसलिये अनुपात से दोनों जगह फल की तुल्यता ही होती है, इसलिये पवृकxशेष परमवृफलx शेष -फल_ ३० – इससे आगे पूर्ववव होता है, यहाँ ववंशब्द से ६००० २०० = = सौरवर्ष ही ग्रहण करना चाहिये । भास्कराचार्य सिद्धान्तशिरोमणि में रवि, चन्द्र, बृहस्पति, शुक्रशीम्रोश, चन्द्रमन्दोच्चों में अनुपातागत फलों को ऋण कहते हैं तथा मङ्गल बुध, चन्द्र, पात, शनि इनमें प्रनुपातागत फल को धन कहते हैं, ब्रह्मगुप्त सयों में अनुपातागत फलों को ऋण ही कहते हैं, सिदान्ततत्त्वविवेक में कमलाकर मे बीज कमें संस्कार का खण्डन किया है । इनमें क्या ठीक है, इस विषय में प्रबल युक्ति नहीं मिलती है, इसलिये इस विषय में हम कुछ नहीं कह सकते ६०-६१॥