२१६ =स्पक्ज्यान्तर, शीक= शीघ्रकर्णः पतृ मल -अम्-इष्टकंज्यान्सर = स्पकेन्द्रान्तर = स्पकंग, स्खलया भोर्च ४शीकेग =शोकेज्यान्तर, अत उत्थापनेन 1.xभाखxशकंग प्रथमच। शोके प्रथमचा |ञ्च. औष्य तत् । १३: अद्यतनशीउ-अद्य तनस्पग्र = अद्यतनस्पके तथा इवस्तनशोउ श्वस्तनस्तम=वस्तनस्थळे, अनयोरन्तरम्=औोउग-स्पग=स्वकेग दः मर्ग-स्पकेग=स्वगति, यदि शीउगस्पकेण तदा विलोमशोधनेन वक्रा गतिः=ऋणात्मिका गतिर्भवेदेतावताऽऽचायोक्तं सर्वमुपपन्नम् । सिद्धन्तरे– चञ्वलकेन्द्रगतिः फलभोग्यज्यागुणिता ऽऽवगुणेन २२३ विभक्ता । व्यासदल ३४१५ ज्ञफलं श्रुतिभक्तं तद्र हिताशुगति: स्फुटभुक्तिः । स्यादवनीतनयादिखगानां शीघ्रगतेः फलमभ्यधिकं चेत् । तत्फलतोऽषि विशोधय शेषं वक्रगतिर्भयति द्युचराणाम्, । इति श्रीपत्युक्तं स्पष्टगतिसाधनमाचार्योक्तानुरूपमेव, लल्लाचार्योक्तमपि स्फुटगतिसाधनमीदृशमेवस्ति, परं केषामप्याचार्याणां स्फुटतिसाधनं न समीचीन मिति तदुपपत्तिदर्शनेनैव स्फुटं भवति, केवलं सिद्धान्तशिरोमण ‘फलांशखाङ्कान्तर शिञ्जनोनी' त्यादिना भास्कराचार्येण तात्कालिकगत्या सूक्ष्मं स्पष्टगतिसाधनं कृतमिति विवेचकं विवेचनीयम् ।४१-४२-४३-४४१५ अब ग्रहों की मन्दस्पष्टगति और स्पष्टगति को कहते हैं। हि- भा.-मन्दकेन्द्र गति को ज्यान्तर (भोग्यखण्ड) से गुणाकर प्रथमज्या से भाग देकर जो लब्धि हो उसको स्फुट परिधि से गुणाकर भगणांश ३६० से भाग देकर जो लब्ध कला हो उसको मकरादि केन्द्र में अपनी मध्यम गति में घटाने से और कर्यादिकेन्द्र में जोड़ने से रवि और चन्द्र की स्पष्टगति होती है, अपनी मध्यगति में मन्दगति फल को संस्कार करने से कुजादि ग्रहों की मन्दस्पष्टगति होती है, अपनी मन्दस्पष्टगति को सीघ्रोच्चगति में घटाने से कुजादि ग्रहों की शीघ्रकेन्द्रगति होती है, शीघ्रकेन्द्रगति को भोग्य खण्ड से गुणा कर प्रथमज्या से भाग देने से वो लब्धि हो उसको ध्यासार्षे (त्रिज्या) से गुणा कर शीघ्रकर्ण से भाग देने से जो नब्बि हो उसको सत्रोच्चगति में घटाने से स्फुटगति होती है, यदि लम्बि शीघ्रोच्चगति से अधिक हो तब लब्धि में शीघ्रोच्चगति को घटाकर जो शेष ता है वह सृजादि (भग्न दि) ग्रहों की वक्रगति होती है. इति ॥४१-४२-४३-४४।।
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