थष्टाधिकारः १६ अब स्पष्टगति सघन के लिये उपनि
2. श्रे •1= स्पबेज्यःद्वितीय इन में =म्यप, यहां के प्रया=मन्द- दक स्पष्कंज्य, क्=औत्रकसं. दोनों का अन्तर करने से त्रि त्रि. केज्यान्तर-स्केज्यान्तर ( (लगभग =स्पर्कन्या-स्पनेच्या = भोघं. नीकेग त्रि , भोवं. शोकेग त्रि परन्तु . - -केज्यान्सर,अश्थापन करने से 'x': ==
- प्रथमवा कि अयमचा शक
xभाव:=स्पष्टकेज्यान्तर=पकेन्द्रान्तर=स्पकेण स्वल्पान्सर से . मीकेग. प्रज्या .. अद्यतनउ-अद्यतनपग्र=अद्यतनस्के, श्वस्तनशीऽ-श्वस्तनस्पग्र=श्वस्तन स्पके, दोनों का अक्षर करने से उग-प=स्पकेग : उग–-स्पकेग=स्पग; यदि उग सकेग तब विलोमशोधन से ऋणरिमकागति =वक्रगति होती है, इससे आचयक्त उपपन्न हुआ । सिद्धान्तशेखर में ‘चञ्चलकेन्द्रसफलभोग्यज्यागुणिता' इत्यादि संस्कृतोग्पत्ति में लिखित श्रीपयुक्त, स्पष्टगति साधन आचार्योक्तानुरूप ही है, लल्ला चायत स्पष्टगति साधन भी ऐसा ही है, लेकिन किसी भी आचार्यों से कहा गया स्फुटगति साधन ठीक नहीं है, यह विषय पूर्वोक्तोपपत्ति देखने ही से स्पष्ट है, केवल सिडन्तशिरोमणि में “फलांशखान्तरशिञ्जिनीमी' इत्यादि से तात्कालिकस्पष्टगति से भास्वरोक्त स्पष्ट गति साधन सूक्ष्म है, इसको विवेचक लोग विचारें इति ॥४१-४२-४३-४॥ ॥ अत्र विशेषविचारः अत्र ‘फलांशखाङ्कान्तरशिञ्जिनीध्री” त्यादि भास्करोयविधानेन - कोज्याफxशीकेग स्पष्टकेन्द्रगतिः अथवा स्पकंग= शीकेग-गफ १. शीकेग-गफ= कोज्याफxशीकेग वा शकेग.क८गफ.क= कोज्याफशीकेगः समीकरणेन शीकेग (क-कोज्याफ) -.-^(२) = =