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- ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते
अथ सग्रहैरिति कथं तदुच्यते ।
भूगर्भादिष्टव्यसार्धको हि गोलो भगोलः । भचक्रभगोलयोध्रुवसूत्रयष्टिप्रोत- त्वेन सहैवागमनादिभवनाद् भगोलसंसक्तयोर्मन्दगोलशीघ्रगोलयोग्रं हाधिकर- रणकयोरपि तेन सहैव गमनमिति सिद्धम् ।
ध्रुवसूत्राधिकरणकं पश्चिमाभिमुखं भचक्रभ्रमणम् । तत्सूत्रमध्ये स्रस्ट्रा कदम्बसूत्र तथा निबद्धं यथा कदम्बसूत्रं भचक्रस्य पश्चिमाभिमुखभ्रमे विघ्नं न कुर्वत् स्रष्टृकराघातजनितभ्रमे भचक्रपृष्ठे कदम्बस्थाने खचितं भूत्वा स्थिर भवति । तेन ध्रुवसूत्रध्रुवस्थानादुक्तवेगवरामान्तं प्रागपरदिशि २७० पर्यन्तं भचक्रपृष्ठं घर्षति । तेन ध्रुवतारा न स्थिरा केवलं ध्रुवस्थानमेव स्थिरमिति सिद्धमतस्तदन्ततारे च तथा ध्रुवत्वे इति भास्करोत्त्क्ं, ध्रुवतारां स्थिरां ग्रन्थे मन्यन्ते ते कुबुद्धय इति कमलाकरोत्त्क्ं च संगच्छत इति ।। एताभिरुपपत्तिभिः 'ध्रुवताराप्रतिबद्धज्योतिश्चक्रमि' त्याद्याचार्योत्त्कं सर्वं युक्तिःयुक्तमुपपद्यत इति ॥ ● - हि. भा. - इस ज्योतिष सिद्धान्त में पृथिवी के सम्बन्ध ही से सर्वोग्योगी ग्रहादि कक्षा प्रादि का ज्ञान होता है, इसलिए इसकी प्राकृति कैसी है, उसका परिमाण कितना है, इन सब के निरर्णय के लिए विचार करते हैं। किसी वृक्ष प्रादि से रहित समान पृथिवी में दूर में ईंटों के बने हुए खम्भ के अग्र में जलते हुए लालटेन को रात में दखकर 'क्या बात है' इस आशङ्का से उसकी तरफ चले, उसके समीप जाकर सम्भा के जड़ में भी जलती हुई एक लालटेन को देख- कर दृष्टि के रोकने वाली चीजों के नहीं रहने पर भी क्यों देखने में नहीं माया यह शंका हुई और विचार करने पर मालूम हुआ कि दृष्टि को रोकने वाली पृथिवी ही है इसलिए पृथिवी के पृष्ठ में चक्रत्व है | यह सिद्ध हुआ ।
चारों तरफ आकाश के बराबर रहने पर पृथिवी ही के ऊपर बहुत जगह पके हुए फल
को गिरता हुआ देखकर भूपृष्ठ-स्थित प्रत्येक बिन्दु में आकर्षण शक्ति है यह अनुमान किया गया | और मापन करने से वृक्ष के अग्र से गिरे हुए बिन्दु तक बद्धसूत्र < फलों के गिरने के स्थानों से भिन्न बिन्दुनों से वृक्षाग्र तक सूत्र, इस निर्णय से पृथिवी में बहिःस्थित बिन्दु से पृष्ठस्य बिन्दु- गत रेखामों के बहिःखण्डों से केन्द्रगत रेखा बहिःखण्ड अल्प होता है यह गोलसम्बन्धी स्वाभा- विक धर्म देखने से इसमें किसी तरह का गोलत्व है यह मन में भाया । इसलिए पहले इसमें गोलत्व कल्पना कर के देखना चाहिए कि इसमें गोलीय धर्म है या नहीं। पृथिवी के ऊपर दो स्थानों में समान दो खम्भों को गाड़कर एक खम्भा के शीर्ष स्थान से प्रौर शीर्ष स्थान से कुछ हट कर उसी खम्भा में दृष्टि स्थान रखकर दूसरे खम्भा के अग्र को वेध किए, दोनों खम्भा के अग्र में सूत्र बांध दिये तब जो एक त्रिभुज बनता है उसमें स्तम्भाग्र प्रथम दृष्टिस्थान और उस से भिन्न स्थल में जो दृष्टि स्थान रखे हैं इन दोनों दृष्टिस्थान लग्न कोणों को मापन द्वारा जानकर तथा दृष्टिस्यान द्वयान्तर्गत रेखा को भी मापन से जानकर कोणानुपात से खम्भों के मग्रान्तर समझकर १८०-२४ एक स्तम्भाग्रलग्न कोरण =वधितस्तम्भद्धयोत्पन्न भूकेन्द्र- लग्नकोण क्योंकि दोनों सम्भों से और खम्भों के प्रग्रान्तर से जो त्रिभुज बनता है वह सम- द्विबाहुक है। तब कोणानुपात करते हैं- - -