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- मध्यमाधिकारः
खम्भों के अग्रगत रेखा X खम्भा के, प्रग्रलग्न कोणज्या / भूकेन्द्रलग्न कोणज्या = भूव्यासार्ध + खम्भा = ज्ञातबाहु
इसी तरह दूसरे स्तम्भ प्रमःरण के लिए भी करना, उसका प्रमाण भी इतना ही आता है अतः दोनों ज्ञातबाहु — दोनों खम्भा - भूव्यासार्ध,इस् तरह् प्रत्येक जगह में फल (भूव्यासाधं ) बराबर आता है इसलिए पृथिवी गोलाकार है यह सिद्ध है। श्रनीत भूव्यासाधं को दूना कर देने से भूव्यास होता है तब 'व्यासे भनन्दाग्निहते विभक्ते खबाणमूर्यः' इससे भूपरिधि का ज्ञान होगा । वस्तुतः पृथ्विी का पिण्ड दीर्घपिण्ड के आकार का है लेकिन इसके लघु व्यास, और वृहद्व्यास में बहुत ही कम अन्तर होने के कारण दोनों व्यासों को प्राचायं ने बराबर मान लिया।
नाड़ीवृत्त कालवृत्त क्यों है यह कहते हैं । प्रवह वायुद्वारा भगोल को घुमाने पर भी बहुत वर्षों में भी स्थिरता से प्राप्त ध्रुवतारा से चिह्नित ध्रुवस्थान से किसी तारा के अन्तर बुज्याचाप उपलब्ध नहीं होता है, इसी से समझा गया कि वास्तव भगोल पृष्ठनिष्ठ स्थिर केन्द्र से उत्पन्न नाड़ीवृत्त और अहोरात्र वृत्त के धरातल में स्थिरता है वहां एक रूप से प्राप्त प्रवह वायुद्वारा घुमाये हुए उन्हीं दोनों वृत्तों
की सहायता से कालगणना उचित है, क्योंकि जिस काल का न आदि है न अन्त है ऐसे काल का रूप आगम प्रमाण से सदा एक रूप है। यही युक्ति प्राचीन और नवीन घटीयन्त्रादि के द्वारा कालज्ञान के लिए है।
व दम्ब तारा का हुज्या चाप स्थिर है और कदम्बस्थान में ताराओं को चल देखते
हैं इससे सिद्ध होता है कि प्रवहगति के अलावा भी मचक्र की कोई गति है वह कदम्बो- त्पन्न महदूवृत्त रूप मार्ग में होता है । इस आन्दोलिकाकार गति के कारण प्रवहाधार भचक्रत्यागकालिक ब्रह्मा के हाथ का श्राघात ही हो सकता है। उस महद्वृत्त में प्रवह के नाड़ीवृत्तरूप प्रधान मार्ग से प्रस्तुत गति के कारणभूत भचक्रचलन का सङ्कलन जितना होता है उतना ही आचार्य पूर्वायनांश और पश्चिमायनांश कहते हैं। उसके साधन पूर्वकथित महदुवृत्त के आधार पर बराबर रहने वाले प्रतिप्रकाशमान नक्षत्रबिम्ब के या ग्रहबिम्ब के अवलम्बन [आवार] से कर सकते हैं। मत: वेध से भचक्रचलन ज्ञान करते हैं। पूर्व कथित महदुवृत्त मार्गनिर्णय के लिए बेधगोलीय और स्थिरगोलीय (भगोलीय) नाड़ीवृत्तषरातलान्तर ज्ञान से तथा वेधगोलीय क्रान्तिज्ञान से भगोलीय क्रान्तिज्ञानप्रकार इसी ग्रन्थ में चन्द्र भगरण को उपपत्ति में देखना चाहिए ।
द्वितीय दिन में षष्टि ६० दण्डात्मक काल में रवि जिस बिन्दु में प्रथम दिन में थे
बह बिन्दु याभ्योत्तरवृत्त ( ध्रुवप्रोतवृत्त ) में वहीं पर थाया। उसके बाद जितने काल में रवि याम्योत्तरवृत्त में भाये उस कालमान को छह से गुणने से रवि के निरक्षदेशीय उदय- मानद्वय ( विषुवांशद्वय ) का अन्तर होता है, क्योंकि याभ्योत्तरवृत्त निरक्षदेशीय क्षितिज वृत्त है। पूर्व युक्ति से क्रान्तिज्ञान भी कर लिया, इस तरह भनेक दिनों में करके अपने आगे