त्रिश्रश्नाधिकारः चुचा=परमाल्य वृज्याचषम् । ध्रगोमि =परमाप खूयां भृगोमे चापोय त्रिभुजेऽनुपातेन भेपोदयया परमामयनाथं चन श्रावृ मानमॐ एवं . वापीय त्रिभुजे प्रनुपातः परमारस घुया. ज्यावृ= ज्या ( मेघोदयमान ज्याभि वृषोदयमान, श्रगोभिचरेय त्रिभुजेऽनुपातेन = परमात्प. भिथुनान्न परमापद्य. ज्यामि = ज्यामि=ज्यामे, ज्यावृ, ज्यामि मेषादि राशीनां .त्रि, अत्र परमापद्य ज्याः । पूर्वोक्तानां चापान्यधधः शुद्धानि नदा मेषादिराशोनां लङ्कोदयमानानि भवन्ति । सिद्धान्तशेखरे अन्त्यद्युज्याविनिघ्नाः क्रियवृदमियु रज्या हृताः स्त्रषु मौव्यं प्राणानां चापलिष्न विरचित विवराः म्युनिक्षोदयास्ते'नेन तथा सिद्धा न्तशिरोमणौ 'मेषादिजीवात्रिगृहयुमव्य क्षुण्णाहृताः स्वस्वदिनज्यया वा । चापीकृताः प्राग्वदधो विशुद्धा मेषादिकानामुदयासवः स्युरित्यनेन, भास्कराचार्य- णाप्याचार्योक्तानुरूवमेव कथ्यत इति ।।१५॥ अब लङ्कोदय साधन को कहते हैं । हि. मा--मिथुनान्तज्या (परमाल्प.ज्या) को मेषादि राशियों की ज्या से गुणाकर प्रपन अपनी व्.ज्या से भाग देकर जो फल हो उनके आपों को अभोऽवः शुद्ध करने से मेषादि राशियों के लोदय मान होते है इति ॥ १५ ॥ राश्यादि बिन्दु जव लकूरा क्षितिज में आता है उसके बाद जितने काल में रास्यन्त बिन्दु लङ्काक्षितिज में ग़ता है वही उस राशि के लङ्कोदयमान, भर्याङ राषयादि और राश्यन्त के ऊपर भ्र.व प्रोतवृत्त करते से दोनों प्र.व श्रोतवृतों के अन्तर्गत गी तृतीग , होता है, यह संस्कृतोपपत्ति में सिक्षित (क) क्षेत्र से स्पष्ट होता है। जैसे - गो = गोलसन्धि-भैषादि, मे = मेषान्त=वृषादि, वृ=वृषान्त = मिथुनादि, मि=मिळुनान्त । श्र= ध्र.व, गोमे=भेषभुजांश, गोवृ=वृषभुषांश, गोमि= मिथुनांश, गोन=भेघोदयमान, नम=वृषोदयमान । मच= मिथुनोदयमान। भूमे=मेषान्ता ज्याचाष, श्रदृ=ान्तं वृज्याचाप, भूमि=मिथुनान्तचुचाप=परमाल्पबुचाप भृगोमे पापीय बिभुग में अनुपात से परमाल्पर्धे. ज्या मेघोदयज्यात्रिशज परमापर्- -, एवं भूगोलु पापीय में अनुपात ते =जया ( मेघोदयभात + वृषोदयभान ), पृ.गोमि पापी निमुच में धनुषात वे
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