३२४ अन्त्या-> फल=अन्या-इष्टान्त्या =नतत्क्रमज्या, अस्या उक्रमथाखण्डैश्चापं कार्य तदा नतासवो भवन्तीति सिद्धाहःशेखरे "यदि वा पलकर्णताड़ितायास्त्रिभ जीवोत्थकृते विभाजितायाःश्रुतिसइगुतिभ्रमेण लब्धं चरजीवोनयुतं यथोक्तव तल्’ ॥ अथ तस्य धनुश्चरासुयुक्त रहितं गोलवशाद् गतावशेषाः ! तदमय फलं तदन्त्यकाया नतमाहुविपरीतधन्व यद्वै ” त्यनेन श्रीपतिंभा, सिद्धान्तशिरोमणो “पल अतिघ्नस्त्रिगुणस्य वर्णो द्युष्टकर्णाहतिकृदित्यादिना” भास्कराचार्येण चाऽऽचार्योक्ता- नुरूपमेव सर्वमुक्तमिति ॥४१-४२-४३॥ प्रब प्रकारन्तर से उन्नत काल को और नत काल को कहते हैं। हि. भा -त्रिज्यावर्ग को पलकण वगं से गुणाकर वूज्या भर इष्टच्छाया की के घात से भाग देने से जो फल होता है उस में उत्तर गोल में चरज्या को घटाने से और दक्षिण गोल में जोड़ने से जो होता है उसके चाप में उत्तर गोल में चराचु को जोड़ने से दक्षिण गोल में घटाने से पूर्व कपाल में और पश्चिम कपाल में दिन के गतासु और दिनशे घासु होता है अर्थात् उन्नत कल होता है, पूर्वागत फल को अन्या में घटाकर जो शेष रहता है उत्क्रमज्याखण्डों से उसके चाप करने से पूर्वकपाल में और पश्चिम कपाल में नतासु प्रमाण होता है इति ।।४१.४२-४३॥ उपपत्ति त्रि. १२ पक. इशं पकत्रि१२ इष्टाङ्कु=• अक्षक्षेत्रा नुपात से इष्टहृतिः = इथाक =--== १२ १२ इछ। इसकी अब ममुपात करते हैं यदि ध या में इष्टहृति पाते हैं तो त्रिज्या में बया । प्रक, त्रि. त्रिपक त्रि इस अनुपात से इष्टान्त्या आती है । " = = इष्टन्या= फल, उत्तर इछाक . द्य, इछक• छ. गोल और दक्षिणगोल क्रम से इष्टान्त्याक्चरज्या=सूत्र, इसका चाप=सूत्रचाप, उत्तर गोल में और दक्षिण गोल में सूत्रचा==चरासु= पूर्वकपास में और पश्चिम कपास में उन्नत ल, तथा अन्या--फल= अन्या-इष्टान्नया-नत-नमज्या उत्क्रमज्याखण्डों से इसके पाप करने ते गतासु अभाव होता है सिद्धान्तलेखर में "यदि वा पलकर्ताड़िताया स्त्रिभवोयकृते:" इत्यादि संस्कृतोपपति में लिखित श्लोक से श्रीपति, तथा पशुः तिघ्नस्थिमुखव वर्षों व ष्पेष्टतिडन्' इत्यादि से भास्कराचार्य ने भी प्राचार्यांत के अनुरूप ही कहा है इति ॥४१-४२-४३ इदानीं पुनः प्रकारान्तरेणाह बवतपुळान्र बकर्यांता फकोनान्त्वा दैवयोगाय अतृविनायकदासाः ॥r६४॥
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