३३२ अत्रोपपत्तिः त्रि-१२. छायाक्षेत्रानुपातेन छायाकर्ण ततः /छयाकर= छाया, शङ्कु इति ॥४६ अब प्रकारान्तर से मध्यच्छायानयन को कहते हैं हि. भा.-त्रिज्या को बारह से गुणा कर मध्यशंकु से भाग देने से मध्यच्छाया कर्ण होता है, छायाकर्ण और द्वादश (१२) क_ वर्गान्तर मूल प्रकारान्तर से मध्यच्छाया होती है इति ।४६। उपपत्ति पूर्वे लोक को उपपत्ति में प्रदशित छायाक्षेत्रों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं त्रि-=मछायाकर्ण, .. १/छायाक२-१२=मध्यच्छाया, इति ।ve॥ १२ मसंकु वि. भा. --यथोक्तक्ररणैः (दिनगतशेषाल्यस्येत्यादिप्रकारैः) मध्यान्हे युदलान्या (हृति:), ज्या (इष्टान्या) छेदः (इष्टहृतिः) मध्यच्छाया प्रसिद्धा, इति सर्वे वा भवति, अथवा -अन्या ज्या छेदाद्धेः (अन्त्येष्टान्येष्टहृत्यादिभिः) पूर्वक्रयितविचिनाऽनेकधा मध्यच्छाया साध्येति ।I५० अत्रोपपत्तिस्तु श्लोकोक्तोपकरणैबोध्येति ।५०। अब हृति आदियों के बहुसाधनत्व को कहते हैं। पूर्वं कथित उपकरणों (दिनगतशेषाल्पस्य इत्यादि प्रकार से) से मध्यान्हकाल में इति, इष्टान्त्या, छेव (इष्टहृति) मध्यच्छाया ये सब होते हैं। अथवा अन्त्या, ज्या (इष्टान्य) इ इइति) आदि से पूर्व बित विधि से अनेक प्रकार मध्यच्छाया साधन करना इति ॥५०॥ इनोक में कथित उपकरणों से अनेक प्रकार मध्यमानयन करना चाहिए इति ॥५०॥ इदानीं समझञ्झुसाधनमाह बिजुलढून शुठे विसृवच्छबोद्धूतोतरा कान्तिः । बनावाय बम उपमण्डलन्डै ५४ ॥ ।
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