पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/३६१

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३४४ ह्मस्फुटसिद्धान्ते दक्षिणगोले व्यभिचारश्च सिद्धान्तशिरोमणेष्टिप्पण्यां संशोधकेन प्रक्ष प्रभाळू तेविहानदृढनिनः पञ्वह्निभग गुण विहृतो lद्व कवचेरिश्रदिन प्रदशितोऽस्ति. = अथ कुत्र कोणशङ्कुचतुष्टयं भवतीति प्रददयंते यत्र देशे परमान= ज्या ४५ ’ तदेशीयपलभाप्रमणमीयते । कर्प्यते । पलभामानम् =य, तदा पक,'=य३+१२ * ततः . (य२+१२२) ज्याजि परमाग्र १२ = '४५ छेदगमेन य' . जि+१२ : यजि=१२. G*४५ समशोधनेन य. ज्याजि={२. ज्या'४५-१२. ज्या 'जि=१२’ (ज्य*४५--ज्याजि) ः:य'= १२ (ज्य'४५-ज्या 'जि) मलेन यः १२v*४५--ज्य।जि १७५॥२२ एतेन ज्य। जि. ज्यजि सिद्धं यद्यत्र देशे पलभा=१७५२२ तत्र परमाग्र-ज्या ४५० यत्र देशे (७५२२ आभ्यऽधिकाः पलभास्तत्र दक्षिणगोले कोणशङ्कोभावो भवेद्यतस्तत्र २ य अग्रा > त्रि' उत्तरगोले तु तत्र कोणशङ्कुचतुष्टयमुqइत एतेन भास्करोक्तभयमप्यु पपन्नं भवताति ॥५४-४५-५६॥ आ= = अब कोणशङ्कु के मानयन को कहते हैं हि.भा.-त्रिज्या वर्गार्ध में रवि को भग्नावणे घटाकर बाहर के वर्ग से गुणा कर बो हो उसका नाम आया है, अग्रा, द्वादश, और पलभा के घत का नाम अन्य है, पलभावर्ग में बहत्तर (७२) जोड़कर गद्य और अन्य में भाग देने से विशिष्ट प्रभाव और अन्य होता है, साथ (विशिष्ट आच) में अन्य (विशिष्ट अन्य) वर्ग जोड़कर मूल नेमा, उसमें अन्य (विशिष्ट मन्य) को जोड़ना और घटाना तब उत्तरगोल में और दक्षिण मोल में कोणशङ्कु होता है । शेष की व्याख्या स्पष्ट है इति ॥५४-५५-५६॥ उपपत्ति कोणवृत्सस्य रवि खे क्षितिजघरातल के ऊपर जो सम्ब होता है। उसका नाम फएसइड है, उसके मूल से पूर्वापर रेखा के ऊपर सम्ब शुज संज्ञक है. भुजसूल से भूक्रेन पर्यन्त वा कोडच मूल से याम्योत्तर रेखा के ऊपर सम्ब कोटि संज्ञक है, केन्द्र से कोणासनपर्यन्त ह्याङ्कणं, भुज-क्षुधा, कोटि-कोटि इव त्रिभुज में की और कटि वे चत्पन्न कीU=zeइसलिये करें और सुज से उत्पन्न कोषु भी=¥५५ मतः सृष ==टि इजिथे २g= €च्या', यहां कमना करते हैं फएखाङ्कं प्रमाण=य, तब अर्थ वे शतक =संभव , अषा शौर ऊतक के संस्कार से उत्तरपोल में भर ३२