गन्द्रग्रहणाधिकारः ३७३ व्यासाधे, इन= भूभाबिम्व व्यासर्घ, भूवं=चन्द्रबिम्ब और भूभागबत्र के मतैक्यधं, भूखं =चन्द्रबिम्ब और भूभाविम्ब के मानांन्तरार्ध, यहां आचार्य ने भूरचं त्रिभुज को नया भूचं- त्रिभुज को सरलाकार मान कर स्थित्यर्ध और विमर्दार्ध का आनयस क्रिया है जैमे भूत्र जात्य त्रिभुज में चं३-चंर= भूर=1/मानैक्यार्ध-पाक्षिकशर = स्थित्यर्धक, तब अनुपात करते हैं यदि रवि और चन्द्र की गदयन्तरकला में साठ घटी पाते हैं तो स्थिरयर्चक्रन्दा में क्या इससे स्थित्यर्ध घटी आती हैं, ६०स्थिई कला = स्थि३ घटी, तथा भूचं जात्य गत्यन्तर कला त्रिभुज में /भूचं'-चंश'=भूश=vमानान्तरार्ध -संमीलन कालिकशर =विमदविकला, इससे पूर्ववत्र अनुपात से विमर्दार्ध घटी= ६०xविमर्दार्ध कला लेकिन यहां स्पाशिक शर गत्यन्तर कला और संमीलन कालिकशर विदित नहीं हैं, विदित है मध्यग्रहण कालिकशर, इसलिये मध्यग्रहण कालिकशर तुल्य ही स्पाशिक शर और संमीलन कालिकशर मानकर प्रभक्तरीति से स्यियवं और दिमर्दीर्घ का आनयन किया गया हैं जो ठीक नहीं हैं, सिद्धान्त शेखर में ‘‘मानार्च संयोगवियोगबगाँ’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्रीपति का श्लोक तथा सिद्धान्त शिरो मणि में ‘मानार्थयोगान्तरयोः कृतिभ्याम् ' इत्यादि भास्कराचार्य का श्लोक आचार्योंक्त के अनुरूप ही हैं इति ॥ ७ ॥ इदानीं स्थिति विमर्दार्थयोः स्फुटीकरणमाह । षष्ट्या विभाजिता स्थितिविमर्देदलनाडिकागुणा स्वगसिः। आदौ रवोन्दुपातेष्वृणमसकृत् तेष घनमन्ते ॥ ३ ॥ सु० भा०-स्पष्टार्थम् । अत्रोपपत्तिः । 'स्थित्यर्धनाडीगुणिता स्वभुक्ति ' रित्यादिना ‘एवं विमर्दार्धफलोनयुक्त' त्यादिना च भास्करविधिना स्फुटा ॥ ९ ॥ वि. भा–स्वगतिः (विगतिः, चन्द्रगतिःपातगतिश्च) स्थितिविमर्ददलना डिका गुणा (स्थित्यर्धघटीभिवमर्दार्धधीभिश्च पृथक् पृथक् गुणिता) षष्टया ६० भक्ताऽऽदौ रविचन्द्रपातेषु ऋणम्अन्ते घनं कार्यमर्थादाद्यस्थित्यर्धे घन- , तेषु मन्यस्थित्यधं ऋणं तथाऽऽद्यविमर्दाघं धनमन्त्यविमर्च ऋणम्, एवमसकृद्वारं वारं पूर्वोक्त- कर्मणि कृते स्थित्यर्धाविमर्दाघं स्फुटे भवत इति ॥ ९॥ यदि षष्टिघटीभिश्चन्द्रगतिकला लभ्यन्ते तदा स्थित्यर्धघटोभिः किमि-
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