चन्द्रग्रहणाधिकारः अत्रोपपत्तिः तत्तत्कालिकशराज्ञानान्मध्यग्रहणकालिकशरादेवेष्टकालज्ञानं क्रुदमनोऽनङ्क द्विधिना स्फुटस्येष्टकालस्य साधनं कर्तव्यमेव । पूर्वमिष्टग्रासनयने ‘नामैक्चार्व कर्ण=इष्टग्रासः’ सिद्धोऽतो मानैक्यार्ध -इष्टग्राम=कर्ण, एतद्रवर्गे नाकालिक चन्द्रशरस्य वर्गशोधनेन यच्छेषं तन्मूलं पष्टथा गुणितं रविचन्द्रयोर्गयन्तरेण् भक्त लब्धं स्पाशकस्थित्यर्धात् मौक्षिकस्थित्यर्धाद्वा शोधयेत्तदा गृहीतेष्टक्रामस्य कालो भवेदेवमसकृच्छरवर्गहीनान्मूलं षष्टिगुणितं रविचन्द्रगत्यन्तरभक्त फलकालेन रविचन्द्रपातान् प्रचाल्य तात्कालिकचन्द्रशरं संसाध्य ततः पुनः ‘ग्रासक्रलोन प्रमाणयुतिदलकृते ' रित्यादिना वारं वारं यः कालः स्थिरो भवेतं स्पाश्चक्र स्थित्यर्धाच्छोधयेत्तदा स्पर्शानन्तरं गतः कालो भवेत् । तमेव कालं मौक्षिक्रस्थित्य र्धाद्विशोध्य शेषं मोक्षात्पूर्वमिष्ट कालो भवतीति । सूर्य सिद्धान्तेऽप्येवेषु ग्रासात्काला- मस्ति, सिद्धान्तशिरोमणौ “ग्रासोनमानैक्यदलस्य वर्गाद्विक्षेपकृया रहिता त्पदं यत् । गत्यन्तरशैविहतं फलोनं स्थित्यर्धकं स्वं भवतोष्टकालः" इत्याचार्यो क्तानुरूपमेवेतिज्ञेयं विनैरिति ॥ १३१४॥ अब इष्ट ग्रास से कालसाधन को कहते हैं। हेि. भा–प्रास रहित मानैक्यार्घ वर्ग में से तात्कालिक चन्द्रशरवर्ग को घटा कर शेष का मूल लेकर उससे तिथिवत् असकृत्कर्म करना चाहिये अर्थात् शेष मुल को साठ से गुणा कर रवि और चन्द्र के गत्यन्तर से भाग देने से जो फल काल हो उनसे रबि, चन्द्र और पात को चला कर तात्कालिक चन्द्रशर साघन कर उससे फिर ग्रासकमोनप्रमाणचुतिदलकृतेः इत्यादि से असकृत् करने से जो काल स्थिरीभूत हो उसको स्पाशिक स्थित्यर्ध में से घटाने से स्पर्श के बाद काल होता है अर्थात् स्पर्श के अनन्तर इतने काल में इतने इष्टग्रास होते हैं । इसीतरह मोक्ष सम्बन्धी काल को मोक्षस्थित्यर्ध में से घटाने से शेष मोक्ष से पूर्व इष्टकाल होता है अर्थात् मोक्ष से पहले इतने काल में इतने इष्ट ग्रास होते हैं इस तरह इष्ट ग्रास से दो तरह का इष्टकाल होता हैं, एक स्पर्श काल के अनन्तर और दूसरा मोक्ष से पूर्व इति ॥ १३ १४ ।। उपपति । स्पंर्शादि कालिक शर विदित न रहने के कारण मध्यंग्रहण ”कालिक शर हो से इंष्ट कालानयन किया गया हैं जो कि ठीक नहीं हैं, इसलिये असकृत्प्रकारं से स्फुट इष्ट काला चयन करना उचित ही हैं, पहले इष्ट ग्रासानयन में मतैक्यार्थ-इष्टन्नस = करर्ष इसके वर्ग
पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/४००
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति