३८४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते में से तात्कालिक इन्द्र दर्ग को घटा कर जो शेष रहता है उसके मूल को साठ से गुणा कर रवि और चन्द्र के गत्यन्तर से भाग देने से जो लब्ध हो उसको स्पार्किक स्थित्यर्ध में से वा मौक्षिक स्थित्यर्ध में से घटा देना तव गृहीत इष्ट ग्रास सम्बन्धी काल होता हैं, इसतरह प्रसकृन् (बार बार) कर्ण वर्गों में से तात्कालिक चन्द्रगर वर्ग को घटाकर शेष के मूल को साठ से गुणा कर रवि और चन्द्र के गत्यन्तर से भाग देने से जो फल काल हो उससे रवि, चन्द्र और पान को चला कर तात्कालिक चन्द्रशर साधन करना पुनः उससे "ग्रासकलोनप्रमाण्युतिदल कृतेः” इत्यादि से बार बार जो काल स्थिर हो उसको स्पाशिक स्थित्यर्ध में से घटा देना तव स्पर्श के बाद गत काल होता हैं, उसी काल को मौक्षिक स्थित्यर्ध में से घटाने से शेष मोक्ष से पूर्व इष्टवल होता हैं, सूर्य सिद्धान्त में भी इसी तरह इष्ट ग्रास से कालानयन है, सिद्धान्त शिरोमणि में "ग्रामोनमानैक्य दलस्य वर्गाद्विक्षेप कृत्या" इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्यों से भास्कराचार्य ने भी आचायक्तानुरूप ही कहा है इति ।। १३-१४ ।। इदानीं स्पर्शादिव्यवस्थामाह स्त्रुटतिथ्यन्ते मध्यं प्रग्रहणं स्थितिदलोनकेऽभ्यधिके । मोक्षो निमीलनोन्मीलने विमर्दार्धहीनयुते॥ १५ ॥ सु० भा०- स्पष्टार्थमुपपत्तिश्च स्फुटा ‘मध्यग्रहः पर्वविरामकाले’ इति भास्क रक्तमेतदनुरूपमेव ॥ १५ ॥ वि. भा-स्फुटतिथ्यन्ते (स्फुट पूर्णान्तकाले अमान्ते वा) मध्यग्रहनं भवति मध्यग्रहणत: पूर्व स्थित्यर्धकाले प्रग्रहणं (स्पर्शः)भवति, मध्यग्रहणानन्तरं स्थित्यर्ध- काले मोक्षो भवति । मध्यग्रहणतः पूर्वं विमर्दीर्घ काले निमीलनं (सर्वग्रासः) मध्यग्रहणात्परं विमर्दीर्घकाले उन्मीलनं (सर्वग्रासावसानं) भवति, रविचन्द्रयो- रुभयोरपि ग्रहणं पच प्रकारं भवतीति ॥ १५॥ पा=पातः। स्थि=ऽन्तकाले भूभा=स्थिर भूभा, चं=पूर्णान्तकाले चन्द्रः= स्थिरचन्द्रः। स्थिरं= पूर्णान्तकाले शरः पूरणन्त कालिकचन्द्रविमण्डलीयभुजांशक्रांति- तृतीय भुजांसशरंपन्नं चापीयजात्यत्रिसुओसरलाकारकंमत्वा स्थिर भूभा स्थिरचन्द्र
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