प्रस्द्रग्रहणाधिकारः ३६१ ततः प्राग्वदपक्रमज्या । तस्या धनुः सत्रिगृहे दुदिकं स्यात् क्षेशे विपातस्य विषोदिशि स्य" श्रद्युक्तञ्च "त्रिभवनसहिच्व ग्रह्न यस्सर्जवा रविमत्रमचपं संस्क्रुतं स्वेषुणा यन्" एभिर्महानुभावैरयनवचने गरमश्रोऽपि कृतः स च युक्तिरहियाल युक्तः । आचार्योक्ताऽऽयनवलनज्या क्रान्तिज्यंचr:fस्त तच्चपाहा: सत्रिभग्रहृदि उत्तरयाम्था आयनवलनांशा भवन्ति, भास्कराचार्येण 'युनाऽयमां शोङकोटि शिञ्जिन जिनांशमध्य गुणिता विभाजिता । यु ओवा लध फलस्य कार्मुकं भवेच्छशाङ्कायनदकमायनम्" नेन समीचनमायनवलन. साधनं कृतमिति ।।१७। अब आयन वतन के साधन को कहते हैं हि. भा.-तीन राशि युक्त प्राप्त (चन्द्रग्रहण में अन्द्र से सूर्य ग्रहण में सूर्य से) वे जो अन्त्रग्रंश हो उससे उत्तर और दक्षिण नाडीवृत्त से तीन राशि के अन्तर पर न्तिवृत्य तात्कालिक पूर्वी दिशा होती है, इस प्रतिश्रुत्य पूगं दिशा से दक्षिण और उत्तर प्रखर होता है इति ॥१७ उपपति: । संस्कृतोपपसि में लिखित () ( को त्र को देखिने । ध्र.प्र., क=इम्स, अ=तिवृत्त में अहं=अ, अह के ऊपर भुवनोतवृत्त और कदम्ब श्रोतहृत सीमिए, ४ को केन मानकर नषत्रंश बाख' से क्षितिं वंशका मृत कीजिए, इन कृत में प्रोत वृत्त मौर कदम्बश्रोतवृत्त के अन्तर्गत प ग गीत और अन्तिधृत के अन्तर्गत बाप व अहनन कोश (पृक्श्रोतवृत सौर कदम्बश्रोत से उत्पन्न) आयन गमन है। उप सुन=हक्षितिब, च=श्रनिभइ = त्रिनयन, प== "=<पाइ= भुवनवणन, मधु- सुन=मुत्रिमब्रह के अपर अब श्रोतात, अफग=हकोटि= बन्नकोटि, • , प्र.=शिनां, तब का थापी निग में करवानुपाव 'नि भ्या में हटिया पाते हैं वो बिनध में म' है इइवल करेल अर्घाव भावनघनव्या स्व. विश्व 'खको स्थान में रिचमन के लिये अनुपात करते हैं कि शिक्षा की गई बलनच्या आवे हैं तो वृष्या में या इव वे याची आवश्र धमज्या आी है, ब्या. शिवाय ॐ वृष्या मावन बडगया, बिहex€०+२: वणिकवा= न्या (९•+) आपल्या बौर बाघल बादश बराबर होती है इखबिर या ज्य (•+) या (१८०--५०-)= (d--r)=रिटन्या=थिइन् स विधि "#'+qरित्य=* पाहा
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