सूर्यग्रहणयकारः ४०३ सर्वतोऽपि त" यह भास्करोक्त समीचीन हो सकता है परन्तु सर्वदा पृड्ण्या=डया नहीं होती है ग्रतः भास्करोक्त वह समीचीन नहीं है। पूवोंक्त नतिस्वरूप में यदि दृक्षेप को स्थिर माना जाय । तब ऽ इसका परमत्व जहाँ होगा वहीं नति को भी परमरव इज्या होगा, परन्तु या इसका परमत्व कहाँ होता है इसके लिये विचार करते हैं। पृष्ठीय नतांश=qन, गर्भायनतांश=ग, दृग्लम्बन = लं, तब पुन=न+लं, चापयोरिष्टयोरित्यादि इज्या-लंकोज्या+शंग्लंघ्या से ज्या नित=पृष्टज्या= = =-- छेदगम से पृदृज्या°त्र=हुया. पलंज्या-पृदृज्य लंकोज्य+इ-लंज्या लेकिन -त्रि ६५=लंज्या, उत्थापन देने से पृदृज्यात्रिः शं.पलंब्या-पूर्वीज्या इज्यालोकोज्या+ प्रतपूज्यात्रि =इज्यालंकोज्या -त्रि-+.पलंग्या त्रि पृदृज्या समशोधन करने से पृदृघ्या.त्रि"-शं.पलंघ्या.पहृज्य =पृदृज्या (त्रि–शै.पतंज्या) पृदृज्यालंकोज्यानि =हृष्या.लंकोज्यात्रि, अतएव =जे.पलब्याइम स्वरूप को देखने से सिद्ध दृज्या त्रि- पृहया होता है कि जहाँ शङ्कु और लम्बन कोटिज्या का परमत्व होगा वहीं इज्या इसका भी परमत्व होगा, परतु शङ्कु और लम्वनकोटिज्या का परमत्व वित्रिभ स्थान ही । में होता है अतः वित्रिभ स्थान ही में नति का परमत्व सिद्ध हुआ, इससे म. ग. पण्डित श्री सुधाकर द्विवेदी जी का सूत्र उपपन्न होता है “कुगर्भनभशगुणेन भक्त" इत्यादि संस्कृतोपपत्तिस्थ सूत्र को देखिये ।। पूर्वसिद्धस्वरूप = इज्या त्रि-.पन्नज्या =ईस्वस्तिक में रवि के रहने से - इज्या त्रि.त्रि ङ=नि, संकोज्या=f, इसलिये इस्वस्तिक में में ३७ -त्रि-त्रि-पूतंज्या लेकिन खस्थस्तिक में रवि के रहने से -त्रि (त्रि-पलंज्या) परसम्बनकयुमज्या पृदृज्या_• _त्रि पृष्ट्वा== ० तथा दृष्या= , .. ध्या==परखनलालब्या तेविस परम्बन
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