सूर्यग्रहणाधिकारः ४१३ पलंघ्या. ह्या. १२ पलंघ्या. २ त्रि = त्रि = दृग्लम्बनतुल्याक्षदेशीयपलभा. शं. पलंज्या शं. पतंज्या अतो येऽक्षांशास्तदेव दृग्लम्बनमतेन म. म. पण्डित श्रीमुधाकरोक्तसूत्रमवतरति "त्रिज्याकृतिः परमलम्बनमौविकाप्तान्ना भाजिता च विधुना रहिताऽथ तेन । भक्त ष्टभ फलमितां पलभ प्रकल्प्य साध्या पलांशकलिकेष्टविलंबनं वा” एतदृशेन स्पष्टसंबनज्ञानं भवेदिति ॥४-५।। प्रब स्पष्टलम्बनानयन को कहते हैं । हि- भा.-त्रिल्यावगं में बतुरां णित वित्रिभशङ्कु वर्ग से भाग देने से जो फल हो उस से तात्कालिक रवि और वित्रिम की अन्तर ज्या को माग देने से जो लब्धि होती है वह स्पष्टलम्बन घटी होती है, तात्कालिक वित्रिभलग्न से रवि के अधिक रहने पर पूर्णान्त काल में ऋण करना और वित्रिभ से रवि के अल्प रहने पर पूर्णन्त काल में पूर्वानीत लम्बन बटी को धन झरना इस तरह मसकृन् (बारबारकरने से स्पष्ट पूर्णान्त काल होता है इति ॥४- ५॥ यहां संस्कृतोपपत्तिस्थ($) क्षेत्र को देखिये 1 ख =खस्वस्तिक.वि =वित्रिभ, खवि= वित्रिभनतांश,स्व= ग्रहस्थान स्थावि=वित्रिमार्कोन्तर=अं, स्था= लम्बितप्रहस्थान, क= कदम्ब, कस्था वृत्त के ऊपर खस्वस्तिक से लम्बचाप=खपग्र बिन्दु से कस्यां वृत्त के ऊपर सम्बचाप==प्रन, स्यास्था=स्पष्टलम्बन=लं, स्वाबि=7+ लं, लं =पृष्ठीयनतांश, ग्रलं =इंग्लम्बन, प्रस्था=शर, क्ष=शरकोटितब"कविस्था कल्प दोनोंचापीय जात्य त्रिभुष के फ्याक्षेत्र सजातीय होने के कारण ब टr (अं+से). विशं -ज्या खप लम्वचापज्या, झिर खलंप, प्रलंन दोनों चापीयजात्य त्रिभुज के ज्याक्षेत्र के स्थानीय रहने के कारण सम्बन्चापघ्या.ह्ल ज्या =ज्यानन, लम्बचापज्य के उत्थापन से पृदृज्या या ओ+)विशं डलंज्या (=, " परंज्या पुढच्या =Eष्या अपन देने . पृथासुनतथा से
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