पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/४४७

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ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते = मो, अतः स्पाशिक स्फुट स्थित्यर्ध=स्यास्फुस्थियः =म-स्प= स्थि+ल,-ल, मौक्षिक स्फुट स्थित्यर्ध=भौस्फुस्थि=मोम =स्थि +ल ,-ल, , इसलिये यदि ल,>ल, तया ल, >ल, तब ल,-ल,, ल, -ल, यह दोनों घन होते हैं, यदि वे लम्बन धन हैं तब ल,- ल, ल,-ल, इन दोनों के मान ल~ल, लजल, होगें। यदि ल,>ल, तथा ल,>ल, तब ल, -ल,, ल, ~ल, तब ये दोनों धन होंगै अन्यथा ऋण होगें । वित्रिभ से पूर्व स्पर्श और पश्चात्र मध्यकाल रहने से ल, यह ऋण, ल, यह धन होगा, तब ल,--ल, मान ल,+ल, यह घन होगा, स्पाशिक लम्बन के धन रहने से वित्रिभ से पश्चिम रवि के रहने से उससे भी आगे मध्यकाल स्थिति के कारण मध्य कालिक लम्बन सर्वदा धन ही होता है इसलिये वहां घनत्व स्थिति और ऋणत्व स्थिति नहीं होती है । इसी तरह वित्रिभ से पूर्व दिशा में यदि मध्यकाल है और पश्चात् मोक्षकाल तब ल, ऋण होता है और ल घन होता है । तव पूर्व विधि से ल, -ल, इसकी ल + ल, ऐसी स्थिति सदा धनात्मक होती है, इसलिये यदि एक ऋण हो और अन्य धन हो तब सदा उन दोनों के योग को स्थित्यर्ध में जोड़ने से स्फुट स्थित्यर्ध होता है, स्फुट स्पर्शकाल और स्फुट मोक्ष काल के अज्ञात रहने के कारण पहले ल, ल, के स्थान में स्थूल ल, ग्रहण किया गया, तब स्पद -स्थि-ल, =-द-ल,-स्थि=स्पष्ट दर्शान्त-स्थि, एवं स्थूल मोक्षकाल=स्पष्टदर्शान्त+ स्थि, इसलिये स्थित्यर्ध कर के हीन युत स्पष्ट तिथ्यन्त से पहले लम्बनानयन उचित है, और तात्कालिक स्फुट स्थित्यर्धा स्पर्श कालिक और मोक्ष कालिक शरवश से उचित है लेकिन यहां मध्यकालिक स्पष्टशरवश से स्थिर स्थित्यर्ध ग्रहण कर आनयन किया गया है इसलिये यह स्थल है सूक्ष्मार्थों के वास्ते आगे आचार्य प्रकारान्तर को कहते हैं इति, सिद्धान्त शेखर में "तिथ्यन्तात् स्थितिखण्ड हीन सहिता” इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित पद्यों से श्रीपति तथा “स्थित्यधनाधिकात् प्राग्वत्" इत्यादि स सूर्य सिद्धान्तकार ने आचर्योत के सदृश ही कहा हैं इति ।। १४-१५॥ अथ प्रकारान्तरेण स्फुटस्थित्यर्धविमर्दार्धसाधनमाह । स्फुटतिथ्यन्ताल्लम्बनमसकृत् स्थित्यर्धहोनयुक्ताद्वा । तत्स्फुटविक्षेपकृतस्थित्यर्धनयुततिथ्यन्तात् ॥ १६ ॥ तत्पष्टतिथिच्छेदान्तरे स्फुटे दिनदले विहीनयुतात् । स्वविमर्दार्धेनासकृदेवं स्पष्टं विमदधे ॥ १७ ॥ सु० भा०-प्रथमं स्थित्यर्धानयुतात् स्फुटतिथ्यन्तात् स्पष्टदर्शान्ताल्लम्ब नमानेयम् । पुनस्तत्स्फुटविक्षेपकृतस्थित्यधनयुततिथ्यन्ताल्लम्बनमानेयमेवमस- हत् । अत्र तदुक्तं भवति । यथा स्पर्शकालज्ञानाय प्रथमं मध्यकालकस्पष्टशर