सूर्यग्रहणाविक ४३५ 'ws! दर्शान्तादग्रे प्रष्ठीयस्पर्शकालकल्पनयै ताः घटिफा (लम्बानान्तरघ-स्थि३घ) गर्भाशदशन्ते युतास्सदा पृष्ठाभि प्रायेण स्पर्शकल:=दघ-स्थि३घ + लम्बनान्तरघ, अक्षः सिद्धं स्फुट- तिथ्यन्तात् स्थित्यर्धहीनयुक्तादित्यत्र स्थित्यर्धघटी सर्वदा गर्भायदशन्ते हीनेव कार्यं प्राक, पश्चिमकपालेलम्घनान्तरमृणं धनं च कार्यमिति । मे ९ (7) रस पश्चिमकपाले गर्भायदशन्तापूवं यदा पृष्ठाभिप्रायेण भ्रशं कालस्तदा क्षेत्रम् सिद्धान्तशेखरे स्थित्यर्चनयु तात् परिस्फटतिथेः स्याल्लम्बनं पूर्ववत् मन्मध्यग्रहवे च मध्यतिथो ततस्तु तिथयो । स्थित्यर्धेन परिस्फुटेषु जनितेनोनाधिका द्वाऽसकृत् तfतथ्यन्तरना-का: स्थितदले स्तः स्पर्शमुक्त्योः पुटे' ऽनेन श्रीपतिना ऽचार्योक्तानुरूपमेत्रोक्तं परमस्य श्लोकस्य द्वितीयचरणं भ्रष्ट पाठसम्वलितमस्ति, सिद्धान्तशिरोमण 'तिध्यन्ताद् गणितागतात् स्थितदलेनोनाविकालम्बनं तत्कलोत्थनतीषु संस्कृतभवस्थित्यर्धहीनाधिके । दर्शान्ते गणितागते वनमुणं वा तद्विधायासकृज् ज्ञेयौ प्रग्रहमोक्षसंज्ञसमयावेवं क्रमात् प्रस्फुटौ’ इति भास्करोक्तं सर्वथैवाचार्योक्तानुरूपमिति ।।१६-१७॥ अब प्रकारान्तर से स्थित्यर्धेसाघन को कहते हैं। हि- भा–पहले स्थित्यञ्च करके हीन और युत स्फुटतिथ्यन्त (स्पष्टदर्शान्त) से सम्बन लाना चाहिये, फिर उसे स्पष्टशर जनित स्थित्यर्धा करके हीन और युत तिग्रन्त से लम्बन लाना इस तरह असकृत् करना, यहाँ यह कहा जाता है कि स्पर्शकालज्ञान के लिये पहले मध्यकालिक स्पष्टशरवश से स्यित्यध साघन करना, उसको स्पष्ट तिच्यन्त में घटाकर जो हो उससे लम्बन और नति साघन करना, तात्कालिक सपात चन्द्र से चार साघन करना, नति और शर के संस्कार से स्पष्ट शर साधन करना, उससे चन्द्रग्रहणे की तरह स्थित्यर्धे साधन करना, तिच्यन्त में उसको घटाने से जो हो उससे पुनः सम्बन नति, स्पष्टशर और स्फुट स्यित्यव्र' सब कुछ लाना जब तक अविशेष (विशेषता ये रहित) हो तब तक इसी तरह करना, अविरोध होने पर बो लम्बन हो उसको तात्कालिक इष्टफार घनित स्थिरयर्ष करके हीन गणिमतदर्शान्त में धन बों. इस करना, तब स्फुट स्पी
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